आज के दौर में सड़क का संघर्ष


मैं सड़क पर संघर्ष को बड़े शक की नजर से देखता हूँ।  मैं यहाँ इस बात का उत्तर दे रहा हूँ  कि  बहिन जी मायावती सड़क पर नहीं उतर रहीं हैं।  काफी लोग ऐसा कह रहे हैं।  

बाबा साहेब अम्बेडकर  ने कितनी बार सड़कों पर उतरे थे , 1927 -28  में महद आंदोलन और कालाराम मंदिर आंदोलन के बाद उन्होंने कोई आंदोलन भी नहीं किये। 1928 से लेकर 1956 तक जब तक  दलितों के साथ जुल्म ज्यादती हुयी, तो उन्होंने कितनी बार सड़को पर उतरने की बात कही। मैंने बाबा साहेब अम्बेडकर को अच्छी तरह पढ़ा है, जुल्म हो, और सड़कों पर उतर जाओ ,   ऐसे बात बाबा साहेब ने तो नहीं कही।  यदि कही है कही, तो आप दिखा सकते है।  

मान्यवर कांशीराम  तो दलित उत्पीड़न पर जाते ही नहीं थे , वे तो साफ़ कहते थे मैं वहां जाकर क्या करूँगा ?? 

जुल्म हो जाये , तो सड़को पर उतरो , मुझे नहीं लगता कि यह अम्बेडकर - कांशीराम की पद्धति है।  ध्यान रहे कि मैं सड़क पर उतरने की आलोचना नहीं कर रहा  , मेरा यहाँ यह कहना है कि यह अम्बेडकर - कांशीराम की पद्धति नहीं है।  वैसे भी मैं सड़क पर संघर्ष को शक की नजर से देखता हूँ।  
हाँ, सड़क पर उतरो , यह राम मनोहर लोहिया की  पद्धति है , मार्क्सवादी पद्धति है ,आप  गांधीवादी पद्धति भी कह सकते हैं।  लोहिया ने साफ़ कहा कि सड़क सुनी हो जाएगी , तो संसद आवारा हो जाएगी।  वे मध्यमवर्गीय जाति से आते थे , इसलिए उनका  मानना ऐसा था ।  मार्क्सवादी पद्धति भी सड़क पर उतरने की बात करती है।  ले मशालें चल पड़े हैं , लोग मेरे गांव  के।  मार्क्सवादी पद्धति में सत्ता के खिलाफ जनता संघर्ष करती है , और वहां जनता एकक ( uniform ) है।  जाति विभाजित नहीं है। भारतीय समाज में संघर्ष सत्ता के बजाय जनता के मध्य आपस में ज्यादा है , वह है विभिन्न जातियों के  मध्य आपस में संघर्ष।  जो इस समय हाथरस में दिखाई दे रहा है , कि सवर्ण अपने रेपिस्ट बच्चों को बचाने के लिए लामबंद हो गए है। ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के -  भारतीय समाज में कभी लोग एक साथ मिलकर संघर्ष कर सकते।  क्योकि संघर्ष ही अगड़ों और पिछड़ों ( depressed )  के बीच है।  

यदि आप अम्बेडकर - कांशीराम को मानते हो ,  तो सड़क पर उतरो , सड़क पर उतरो,उन्होंने तो ऐसा नहीं कहा है । यद्यपि मैं सड़क पर उतरने का विरोधी नहीं हूँ, एक रणनीति हो सकती है।

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