संत रविदास की हत्या
संत रविदास जी की हत्या, उसके कारण, तथा उनके बारे में फैलाए जा रहे भ्रम
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संत रविदास जी के बारे में यह भ्रम फैलाया गया कि उन्होंने अपने पात्र में गंगा दिखाई ,
जो शख्स पूरी जिंदगी अवैज्ञानिकता से लडता रहा ,और उसको खुद अवैज्ञानिक बता दिया, उनके कथन
'मन चंगा तो कटौती में गंगा' में संदेश में बदल दिया गया।
दूसरा वो रामानंद के शिष्य थे जबकि रामानंद और रविदास जी के समय में अंतर है।
तीसरा उन्होंने चित्तौडगढ के महल में रंबी यानि चमढे काटने का औजार से अपनी छाती चीरकर जनेऊ दिखाया।
जबकि महल में उनका सीना चीरा और झूठ प्रचारित किया गया।
अगर राजा किसी को अपने महल में बुलाएगा तो क्या कोई इंसान अपने दैनिक कार्य करने वाले औजार क्यों लेके जाएगा।
संत रविदास अपनी रंबी लेके क्यों गये जबकि उन्हे शास्त्रार्थ के बुलाया गया।
उनकी हत्या के कारण
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उनके द्वारा पाखंड के खिलाफ प्रचार करना ब्राह्मणों को रास नहीं आया। और मीराबाई के द्वारा रविदास जी को गुरु मानना और देर सवेर उनके साथ सत्संग करना।
राणा सांगा और बप्पा रावल रविदास के रिश्तेदार थे इसलिए इसके लिए ब्राह्मणों ने राणा के कान भरना शुरु किया कि तुम्हारी बहू मीराबाई और रानी राजपूत रानी झाली रात रात भर रविदास के साथ रहती है।
इसलिए चित्तौडगढ के कुंभ श्याम मंदिर में उनकी हत्या कर दी गयी ।
रविदास जी बौद्ध धर्म की बज्रयान शाखा के मतानुयायी थे।
मीराबाई और रानी झाली से खूब मारपीट की गयी ।यहां तक कि मीराबाई को जहर भी दिया गया। यह प्रचार किया गया कि मीराबाई को कृष्ण भक्ति के कारण जहर दिया गया। किसी भगवान की भक्ति के कारण जहर देने में क्या तुक है। उनको तो झूठा जातिय दंभ था और उनको बिल्कुल पसंद न था कि उनकी बहु बेटी चमार के रात रात भर घर से बाहर रहे
और आज भी इसी झूठी शान के लिए आनर किलिंग की जाती रही है।
मीरा के पद -
खोजत फिरु भेद पा घर को,कोई न करत बखानी।
रैदास संत मिले मौह सतगुरु,,दीन्ही सुरत सहदानी।
गुरु मिल्या म्हाने रैदास ,नाम नही छोडुं।
मीरा राणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थी।
इनके पिता रत्नसेन और मेडता नरेश राव दूदा की नातिन थी।
जन्म 1498 में कुडगी ग्राम में हुआ। जबकि कुछ इतिहासकार बाजोली में मानते हैं ।
मीरा के चाचा राव वीरमदेव ने ही मीरा की राणा भोजराज से शादी करवाई। लेकिन 1525 में भोजराज की मृत्यु हो गयी।
और छः माह बाद 1527 में खानवा के युद्ध में बाबर से युद्ध करते उसके पिता भी मृत्यु हो गयी।
तीन साल बाद राणा साँगा की भी षड्यंत्र कर जहर देकर हत्या कर दी गयी।
उसके बाद मीरा उस समय के प्रसिद्ध संत रविदास जी की शरण मे आई और उनकी शिष्या बनी।
कर्नल टॉड के अनुसार रविदास की दूसरी शिष्या रानी झाली राणा रायमल के पिता राणाकुंभा की पत्नी थी। कुछ इतिहासकार झाली को राणा साँगा की पत्नी मानते हैं।
मीराबाई का रविदास के साथ रहना राणा रतन सिंह जो मीरा का देवर था ,को रास न आया । उन्होने मीरा को कष्ट देना शुरु कर दिया।
मीराबाई को कष्ट देने में उनकी ननद ऊदाबाई भी पीछे न रही।
उन्हे जान से मारने तथा समाज में बदनामी की धमकी दी गयी ।
इसका प्रमाण है मीरा का एक पद
भाभी बोलो बात बिचारी
साधों की संगति दुख भारी,
मानो बात हमारी
छापातिलक गल हार उतारो,पहिरो हार हजारी।
रतन जडित आभूषण पहिरो ,भोगो भोग अपारी
मीरा जी थे चलो महल में ,
थां ने सोगन म्हारी।
अब मीरा मान लीज्यो हमारी ,थाने सखिया बरजै सारी।
राणा बरजै राणी बरजै,बरजै सब परिवारी।
साधन के ढिंग बैठ बैठ ,लाज गमाई सारी।
नित प्रति उठ नीच घर जावो,कुल कूं लगावौ गारी।
इस पद से यही प्रमाणित होता है कि घर वालों को मीराबाई का रविदास साथ रहना पसंद नहीं था।
इसलिए मीरा को जहर दिया गया।
मीरा ने स्वयं अपने पद में इस घटना का जिक्र किया है
- विष का प्याला राणा भेज्या
पीबत मीरां हांसी रे।
पुरोहितों के सुझाव पर राणा विक्रम ने मीरा की हत्या का षड्यंत्र रचा।लेकिन वो किसी तरह बच गयी।
इसके बावज़ूद भी मीराबाई ने रविदास की संगत नहीं छोडी।
तब रविदास जी की हत्या का षड्यंत्र रचा गया।
क्योकि रविदास मंदिर मस्जिद, वेद आदि का पुरजोर विरोध करते रहे।
उनके उपदेशों का दायरा बढता जा रहा था। पुरोहितों को बिल्कुल रास नहीं आया कि नीच जात का पुरुष उनके जैसे उपदेश दे। चमार होकर ब्राह्मण वर्ग का काम करें।
वह वर्ण व्यवस्था का अपमान कर रहा है ।
जैसे चार्वाक को ,जैसे शंबूक को धर्म के विरुद्ध आचरण करने मारा गया उसकी प्रकार रविदास जी मारना जरूरी है।
इसलिए दिव्य जनेऊ दिखाने के बहाने से कुंभ श्याम मंदिर बुलाया और मारकर रंबा से उनकी छाती चीर दी गयी ।
छाती चीर कर अंदर जनेऊ घुसा दिया ।
जिसे बाद ये हल्ला किया गया कि खुद रैदास ने अपने अंदर दिव्य जनेऊ दिखाया छाती चीरकर।
यह घटना संभवत 1534 की है क्योंकि 1535 में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया।
उनकी हत्या के बाद से ही चित्तौड़ उजड गया ।मीरा अपने पीहर मेडता चली गई। और सारा घटनाक्रम बताया।
गुरु रैदास ने कहा-
रैदास न ब्राह्मण पूजिए,जेउं होयें गुणहीन।
पूजे चरण चंडाल के ,जेऊ होउ गुन प्रवीन।
अर्थ - अगर ब्राह्मण गुणहीन है उसके पैर न पूजे ,अगर चंडाल या अन्य कोई जो विद्वान है उसके चरण पूजै।
लेकिन तुलसीदास ने इनके विरोध में घटिया पंक्ति लिखी।
-पूजि विप्र शीलगुनहीना ।।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना।।
अर्थ- गुणहीन ब्राह्मण के पैर पूजिए लेकिन विद्वान शूद्र के पैर ना पूजे
रविदास जी ने लिखा -
जात जात में जात है, ज्यों केरन के पात।
रैदास न मानुस जुड सके,जौं लो जात न जात।
अर्थ- हर धार्मिक यात्रा ,पूजापाठ में जातिवाद होता है ।
जब तक ये जातिवाद खत्म नहीं होगा तब तक इंसान से इंसान नहीं जुडेगा।
इनके विरोध में तुलसी ने लिखा
जे बरनास्रम तेलि कुम्हारा
स्वपच किरात कोल कलवारा
ढोल गवार शू्द्र पशु नारी
सकल ताडना के अधिकारी।
अर्थ वर्ण व्यवस्था में तेली कुम्हार कोल ,डोम आदि शूद्रों को वही काम करने चाहिए जो उनके जातिय काम है।
नारी,ढोल ,गवार शूद्र पशु ये पांचों सिर्फ ताडना के अधिकारी है।
नहीं तो वर्ण व्यवस्था को खा जायेंगे।
रैदास लिखते है।
रैदास जन्म के कारने होत न कोई नीच।
नर को नीच करि डारिहे ,ओछे करम की कीच।
संत रविदास ने सामाजिक कुरीतियों, वर्ण व्यवस्था, अस्पृश्यता का विरोध किया ।
यही कारण था रैदास जी द्वारा अमानवीय प्रथाओं के विरोध को ब्राह्मणों ने अपना विरोध मान लिया।
जब जब ब्राह्मणवाद का विरोध होता रहा है तब विरोध करने वालों की हत्या होती रही है।
शंबूक की हत्या
एकलव्य का अंगूठा काटना
सारिपुत्र और मौदगल्यायन की हत्या
चिंचा द्वारा बुद्ध का चरित्र हनन करना
पुष्यमित्र शुंग द्वारा बृहद्रथ की हत्या।
चार्वाक को जिंदा जलाया गया।
धम्मपद के दंडवग्ग में विवरण मिलता है बुद्ध के शिष्य महामौदगल्यायन की राजगीर के पास हजार कर्षापण( मुद्रा) देकर हत्या करवा दी और बाद में उनके सिर पर पत्थर मार मार उनके सिर को चावल के बराबर टुकड किए गये।
शंकर दिग्विजय में लिखा है। कि शंकराचार्य को जलते हुए बौद्ध को देखकर मजा आता था।
भाउ लोखंडे की पुस्तक 'complete works of Swami Vivekanand ' में विवेकानन्द का कथन है कि शंकराचार्य का हृदय ऐसा था कि बहुत से बौद्ध भिक्षुओं को जलाकर मार दिया गया था।
डा. लालमणि जोशी अपनी पुस्तक' स्टडी इन बुद्धिस्टक कल्चर' में लिखते है कि कुमारिल भट्ट का हमला महाघातक था जो बुद्ध धर्म के लिए सबसे ज्यादा जानलेवा था।
बौद्धों का सफाया करने के लिए उज्जैन के राजा सुधन्वा को उकसाया गया। जिसके द्वारा सशांक की तरह बौद्ध का सिर काटकर लाने वाले को इनाम देता था।
उसका साला भिक्षुओं की नाक मे रस्सी डालकर घोडे के स्थान पर रथ में जोतकर मारता था।
तुलसीदास ने खुद लिखा है
'मांगी के खाइबो,मसीत में सोइबो'
यानि जो संत काम नहीं करता ,सिर्फ मांगकर ही खाता है और मस्जिद में सोता है वो पूजनीय हो गया।
लेकिन जो संत रविदास मेहनत कर जूते बनाते है और साथ साथ लोगों को अपनी रचनाओं के माध्यम से जागरुक करता है। वो अछूत और एक ही जाति के लिए पूजनीय हो गया।
साभार-गुरु रविदास की हत्या के प्रमाणित दस्तावेज़
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