असल दीवाली
असली दिवाली तो तब है जब भीतर का दीया जले, उजाला अंदर से हो, ज्ञान व ध्यान की ज्योति जले।
अत्त दीपो भव, अपने दीपक स्वयं बनो,
जो पद, प्रतिष्ठा, धन से नहीं मिलता है वह ज्ञान, ध्यान से मिलता है ध्यान की ज्योति स्वयं के साथ संसार को उजियारा देती है। हम बाहर की दीवाली कितनी ही मनाएं, भीतर का अंधेरा बाहर के दीयों से नहीं मिटता है। भीतर प्रकाश जरूरी है हम बाहर भटकते है लेकिन अंदर की ओर नहीं देखते है। बाहर यानी अंधेरा और अंदर यानी उजियारा, जगमगाहट
जैसा कि रैदास कहते हैं मन चंगा, तो कठौती में गंगा,
हम सारी रोशनी बाहर डालते है सबको देख लेते है लेकिन अपने प्रति कोरे रह जाते हैं, यदि स्वयं को नहीं देखा तो कुछ भी नहीं देखा. क्योंकि जिसे हम खोजने के लिए बाहर भटक रहे है वह हमारे भीतर है. हम सभी के पास उतनी ही ध्यान ऊर्जा है जितनी बुद्ध के पास होती है, प्रकृति ने सभी को बराबर दी है। हर कोई ध्यान से अपने भीतर प्रकाश जगा सकता है, बुद्धत्व को प्राप्त कर सकता है।
लेकिन हमने सारा ध्यान बाहर के विषयों पर लगा रखा है, हमारा ध्यान वस्तुओं पर टिका हुआ है. हमारा मन मोहक चीजों में फंसा हुआ है, हमारा चंचल चित्त बाहर की चकाचौंध में ज्यादा रम रहा है. किसी का मन का धन में अटका है,किसी का प्रतिष्ठा में, किसी का वस्तुओं में अटका है और किसी का व्यक्तियों के संबंधों में अटका हैं।
इसलिए बुद्ध से लेकर कबीर तक सभी यही कहते है, बाहर मत भटको,अपने अंदर देखो. बाहर के राग, मोह, लोभ ,घृणा ,अहंकार,तृष्णा छोड़ो। मन को बाहर मत अटकाओ। सारी ऊर्जा को भीतर की ओर मोड़ दो. तुम स्वयं तो रोशन होते ही हो ,खुद तो प्रकाशवान होते ही हो. आस पास के वातावरण में भी सुख, आनंद व उजियारा छा जाता है. जब अपने दीपक स्वयं बनोगे तो असली दीवाली होगी, बाहर भी रोशनी की जगमगाहट होगी।
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