सुर सती या सरस्वती

#सुरसती से #सरस्वती की परंपरा

सम्यक काल की जितनी भी शब्दावली है, उसका भावार्थ उस समय के भाषा (पालि) अनुसार ही होगा।

सम्यक काल की पालि भाषा जैसे-जैसे आगे क्रमिक रूप से विकास करती गयी, 
वैसे वैसे पालि भाषा का संस्कार (संस्कृत) होते हुए , 
समाज का विकाश कहें या विनाश करते गयी।

  (14 फरवरी) हिंदी महीना से "माघ पंचमी" है।
    आज के दिन वर्तमान #शिक्षण संस्थानों के अंदर शिक्षा देने वाले प्रबुद्ध शिक्षक और शिक्षा लेने वाले होनहार विद्यार्थी, 
सभी मिलकर #स्वरसती नाम (अपभ्रंस सरस्वती) की देवी की आराधना करेगें।
लेकिन
इन्ही शिक्षण संस्थानों के प्रबुद्ध शिक्षक और होनहार विद्यार्थी से जब पूछा जाता है कि क्या #नालंदा विश्वविद्यालय जैसे किसी भी शिक्षण संस्थान में सरस्वती नाम की देवी का आराधना का कोई साक्ष्य मिला है?
फिर क्या,
इतना छोटा सा सवाल करने पर दोनो मतावलम्बी के लोग पड़ोसी का बंगला झांकते हुए ब्राह्मण मुगल राजपूत (गठजोड़) काल की लिखी गयी संस्कारित भाषा (संस्कृत) की पुस्तक दिखाने लगते हैं।
अब आपलोग ही बताएं 
कि
मुगल काल में स्थापित स्वरसती देवी की पूजा करने से किसको कितना ज्ञान बढ़ा और किसको कितना ज्ञान मिला, 
इस सत्य व असत्य की बेतुकी तर्क पर आपलोग स्वयं मंथन करें!
आइए 
हम इस #स्वरसती की परंपरा को समझे 
कि 
इस शब्द और परंपरा का उद्भव कहां व कैसे हुआ?

सम्यक संस्कृति में अष्टांगिक मार्ग के अंदर एक मार्ग का नाम है सम्यक #सती।
इसमे #सती शब्द का अर्थ पालि में #सजगता होता है।

दूसरा सम्यक काल में जो वर्णमाला होती थी उसमें #सुर (स्वर) का काफी महत्व होता था। 

यह सुर जन्म से ही प्रत्येक प्राणी को प्रकृति प्रदत्त कुदरतन प्राप्त होता है। जिस वजह से इसका उपयोग पृथ्वीलोक में जन्म से ही सभी प्राणी करता है।
जैसे अ, आ, इ, उ, ए, ओ।

यह प्रकृति प्रदत्त "सुर" को जब मनुष्य "सती" के साथ प्रयोग करता है,
तो 
वह सुंदर ध्वनि निकालता है।
#गायक लोग आज भी सुरों का रियाज सती के साथ करता है।
वह #सुरसती कहलाता है।

इसी "सुर" और "सती" को जब संस्कारित भाषा (संस्कृत) में "स्वर" और "सती" के साथ लिखेंगे तो यह "स्वरसती" का रूप लेता है।

लेकिन दुर्भाग्य!
भ्रमवंशियों द्वारा शिक्षण संस्थान का उपयोग आडम्बर-पाखण्ड फैलाने में सबसे ज्यादा किया जाता रहा है।
आइए
 हम और आप सभी मिलकर उस दिञभ्रमित शिक्षण संस्थान से इस "सुरसती" (पालि भाषा) यानी "सरस्वती" (संस्कृत में) को भ्रमवंशियों से मुक्त कराए , 
ताकि 
समाज के अंदर सभी लोगों का स्वर (सुर)  सजगता (सती) के साथ प्रयोग हो,
और 
सामंती और अभद्र (गाली-गलौज) स्वर का प्रयोग बंद हो। 

☸अत्त दीपो भव☸

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