अलेकजेंडर कनिंघम ✍️
सर अलेक्जेंडर कनिंघम के महान कार्यों को उनकी जन्म जयंती पर दिल से सलाम|
संशोधन के लिए अधिक शिक्षा की जरूरत नहीं है, केवल संशोधक दृष्टि की जरूरत होती है| भारत में यह गलतफहमी है की पीएचडी, एम फील जैसी बड़ी बड़ी डिग्रियाँ पाने के बाद ही व्यक्ति इतिहास संशोधक बन सकता है, लेकिन यह बिलकुल गलत है| एडिसन दसवीं फेल थे लेकिन उन्होंने लगभग एक हजार शोध किए और बिजली के बल्ब की खोज उनका प्रसिद्ध संशोधन है| दुनिया के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाइन क्लर्क थे, लेकिन उन्होंने दुनिया के महान संशोधन किए| इसी तरह, अलेक्जेंडर कनिंघम भी ब्रिटिश सेना में इंजिनियर के पद पर भारत आए थे| लेकिन उनकी रुचि ऐतिहासिक उत्खनन (आर्किओलोजी) में बढी और वो दुनिया के महान उत्खनन संशोधक (आर्किओलोजीस्ट) बने|
सर अलेक्जेंडर कनिंघम का जन्म 23 जनवरी 1814 को लंडन में हुआ था| उनके पिता ऐलन कनिंघम स्काटलैंड के प्रसिद्ध कवि थे और उनकी माताजी का नाम जिन नी वाकर था| बड़े भाई जोसेफ के साथ उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा च्रिस्ट्स होस्पिटल लंडन में पुरी की| इस्ट इंडिया कंपनी में अपने भाई के साथ उन्होंने अपनी ट्रेनिंग पुरी की और उम्र के 19 वे साल उन्होंने बेंगाल इंजिनियर्स पद संभाल लिया और अगले 28 साल भारत में ब्रिटिश गवर्नमेंट ओफ इंडिया में सेवा करते रहे|
कलकत्ता में पहली बार 1833 में पहुंचने के बाद उनपर जेम्स प्रिंसेप के इतिहास अध्ययन का गहरा प्रभाव पड़ा और अंत तक वो जेम्स प्रिंसेप के साथ इतिहास संशोधन करते रहे| भारत में आने के बाद उम्र के 21 वे साल में उन्हें बनारस की पोस्टिंग मिली| बनारस के बाहर घुमते वक्त उन्हें 145 फिट बड़ा उंचा टिला दिखाई दिया| वो टिला किसी प्राचीन राजा का टिला होगा ऐसा उन्हें लगा और उन्होंने उसका उत्खनन शुरू किया|
भारत के लोगों में इस तरह की संशोधक दृष्टि नहीं है| उस टिले को पिढी दर पिढी हजारों लोगों ने देखा होगा लेकिन उसका अध्ययन करने का विचार किसी के दिमाग में नहीं आया| संपुर्ण देशभर में बौद्ध विरासत इसी तरह टिले में तब्दील होकर खत्म हो रही है, लेकिन उसका कोई भी संशोधन नहीं कर रहा हैं| कनिंघम जी के संशोधक दृष्टि की हम बहुजनों को अत्यंत जरुरत है|
उस टिले के उत्खनन में कनिंघम को एक बुद्ध मुर्ति मिली और उसपर प्राचीन लिपि थी| उस लिपि की प्रतिलिपि बनाकर पढने के लिए कनिंघम ने वह प्रतिलिपि उनके मित्र जेम्स प्रिंसेप को कलकत्ता भेजी| उसपर लिखा था की वह बुद्ध की मुर्ति है और साथ में दानकर्ता की जानकारी थी| बस्स, यहीं से सारनाथ की खोज हुई और यह सिलसिला लगातार जारी रहा| सारनाथ के बाद कनिंघम ने सांची स्तुप का अध्ययन किया| ड्यूटी पर होने के बावजूद समय निकालकर संपुर्ण देशभर में उन्होंने प्राचीन बौद्ध विरासत का संशोधन किया| अनेक कठिनाईयों का सामना करते हुए उन्होंने यह कार्य किया| उन्होंने अपनी डायरी में लिखकर रखा की अनेक बार उन्हें अपनी जेब से खर्चा कर संशोधन करना पडता था| नेपाल में एक जमींदार के खेत में कनिंघम को प्राचीन बौद्ध स्तुप मिला था| लेकिन वह जमींदार कट्टर ब्राम्हणवादी होने के कारण उस स्तुप को नष्ट कर रहा था| तब कनिंघम ने एक एक इंट के लगभग 10 रुपये देकर वह संपुर्ण स्तुप खरीद लिया था और उसका संवर्धन तथा संशोधन किया था|
भारत में बौद्ध इतिहास तथा विरासत का कोई जानकर ब्रिटिश काल में जीवित नहीं था| तब कनिंघम ने चिनी यात्री फाह्यान, ह्वेनसांग, यिजिंग के प्रवास वर्णनों का अध्ययन कर उसके अनुसार संपुर्ण भारत में दबाई गयी प्राचीन बौद्ध विरासत को दुनिया के सामने लाया| अगर कनिंघम ने यह महान कार्य न किया होता, तो सारनाथ, बोधगया, सांची, जैसे विशालकाय बौद्ध स्तुप ब्राम्हणों नष्ट किए होते या फिर उनको ब्राम्हणवादी देवी देवताओं के मंदिरों में तब्दील किया होता|
हमारी मेहनत, लगन और संशोधन से ही हमारी महानतम बौद्ध विरासत बचेगी| इसलिए, हर व्यक्ति ने अलेक्जेंडर कनिंघम महोदय को सामने रखकर अपना संपुर्ण जीवन बौद्ध विरासत को बचाने, विकसित करने और प्रचलित करने में बिताना चाहिए| अगर हम अपने इतिहास तथा विरासत को नहीं खोजेंगे, तो अन्य कौन खोजेगा? अगर हम उसका संरक्षण, संवर्धन, विकास और प्रचार नहीं करेंगे, तो अन्य कौन करेगा?
हमारी महानतम गौरवशाली विरासत और इतिहास ही हमारे आत्मसम्मान (self respect) की पहचान है| हमें उसको बचाना ही होगा| बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क इस देशव्यापी संगठन के माध्यम से हमारी महानतम विरासत बचाने का, खोजने का और विकसित करने का अभियान संपुर्ण भारत में जारी है| सर अलेक्जेंडर कनिंघम जी से प्रेरित होकर हम यह कार्य कर रहे हैं| महान संशोधक सर अलेक्जेंडर कनिंघम जी को उनकी 209 वी जन्म जयंती पर कोटि कोटि नमन|
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