माता रमाई

माता रमाबाई ----- त्याग समर्पण सफलता का स्वर्णिम इतिहास बाबा साहब की जीवन संगनी माता रमाबाई के अदम्य साहस ,धैर्य ,कर्तव्यनिष्ठा ,सूझबूझ ,त्याग और समर्पण के बिना बाबा साहब का जीवन परिचय पूरा नही होता ।
उनकी सहनशीलता और सादगी के लिए जितना भी
लिखा जाए वो कम है ।उनके जैसा कोई दूसरा इतिहास
नही मिलता ।कहने को तो उन्होंने कोई शिक्षा संस्थान से प्राप्त नही की थी पर जो उन्होंने ने अपने जीवन सफर मे परीक्षाएं दी उनमे हमेशा अग्रणी रही।

 महाराष्ट्र के वणन्द गावं में 7 फरवरी, 1898में हुआ था । इनके पिता का नाम भीकू धुत्रे और माँ का नाम रुक्मणी था । बचपन मे माता रमाबाई का नाम रामी था । पिता की आर्थिक स्थिति बहूत अच्छी नही थी ।कुली का काम करके जीवन निर्बाह करते थे । बालपन में ही माता का देहांत हो गया था ।बच्चे के मन पर इस का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।कुछ दिनों बाद ही पिता का साया भी उठ गया ।इसके बाद मामा और चाचा ने मिलकर इन माता रमाई और उनके भाई बहनों को अपने पास रखा ।
1906 में 9 बर्ष की आयु में 14 बर्षीय बालक भीमराव से हुआ।शादी के कुछ दिनों बाद ही माता रमा बाई को समझ मे आ गया कि उनके जीवन साथी का क्या लक्ष्य है ।वो शिक्षित नही थी पर बाबा साहब ने सामान्य शिक्षा दी ।बाबा साहब अपनी पढ़ाई में इतना ध्यानमग्न हो जाते थे कि उन्हें भूख प्यास की तनिक भी चिंता नही रहती ।अपने कमरे में भी नही आने देते थे बार बार ।अब माँ ने संकल्प कर लिया था कि वह अपने समाज की विसंगतियां दूर करने में पूरा सहयोग करेगी चाहे कितने भी दुख आये।बाबा साहब उन्हें प्यार से रामो और माँ उन्हें साहब कहती थी।
वह समाज की स्थिति उस समय बहुत दयनीय थी ।भीम राव अब धीरे धीरे समाज की बुराइयों को दूर करने में लग गए थे ।आपके 1924 तक 5 संताने हुई ।उसी बीच 1914 से 1923 तक बाबा साहब अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिये विदेश में रहे । ये जीवन सफ़र माँ के लिए बहुत कष्टकारी रहा ।धन अभाव में अच्छा जीवन यापन नही हो पाता था ।इसी कारण बीमारी के चलते और इलाज के अभाव में एक के बाद एक कर उन्होंने 4 बच्चें उन्होंने खो दिए ।सुन कर ही मन सिहर उठता है उस माँ ने उस समय कैसे खुद को संभाला होगा उस पर जब बो अकेली थी ।उसके बाद भी उन्होंने बाबा साहब से कभी कोई शिकायत नही की ।न कभी धन की मांग की ।बल्कि बाबा साहब को भी कभी कभी मदद भेजती थी ।दूर से गोबर के उपले बना बना कर उनको बेच कर गुजारा किया था ।
जब सबसे छोटे पुत्र राजरत्न की भी अल्पायु में मृत्यु हो गयी तब 16 अगस्त 1926 को एक पत्र में बाबा साहब का वियोग साफ नजर आता है -------
उन्होंने लिखा था------

हम चार सुन्दर रुपवान और शुभ बच्चे दफन कर चुके हैं । इन में से तीन पुत्र थे और एक पुत्री । यदि वे जीवित रहते तो भविष्य उनका होता । उनकी मृत्यु का विचार करके हृदय बैठ जाता है । हम बस अब जीवन ही व्यतित कर रहे है । जिस प्रकार सिर से बादल निकल जाता है, उसी प्रकार हमारे दिन झटपट बीतते जा रहे हैं । बच्चों के निधन से हमारे जीवन का आनंद ही जाता रहा और जिस प्रकार बाईबल में लिखा है, "तुम धरती का आनंद हो । यदि वह धरती को त्याग जाय तो फिर धरती आनंदपूर्ण कैसे रहेगी ?" मैं अपने परिक्त जीवन में बार-बार ऐसा ही अनुभव करता हूँ । पुत्रों की मृत्यु से मेरा जीवन बस ऐसे ही रह गया है, जैसे तृण कांटों से भरा हुआ कोई उपवन । बस अब मेरा मन इतना भर आया है कि और अधिक नहीं लिख सकता..."

बस मन भर आता है ऐसी करुणा मूर्ति के शीश झुकाकर नमन बारम्बार

 रमाबाई और भीमराव अम्बेडकर की वर्ष 1924 तक पांच संताने हुई थी । बड़े पुत्र यशवंतराव का जन्म 12 दिसम्बर 1912 में हुआ था । उस समय भीमराव अम्बेडकर परिवार के साथ मुम्बई के पायबावाडी परेल, बी आय टी चाल में रहते थे । जनवरी 1913 में बड़ौदा राज्य सेना में लेफ्टीनेन्ट के रूप में नियुक्ति होने पर डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर बड़ौदा चले आये पर जल्द ही उन्हें अपने पिता रामजी सकपाल की बीमारी के चलते मुंबई वापस लौटना पड़ा, जिनकी मृत्यु रमाबाई की दिन-रात सेवा और चिकित्सा के बाद भी  2 फरवरी 1913 को हो गयी । पिता की मृत्यु के बाद भीमराव उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे ।  वे 1914 से 1923  तक करीब  9 वर्ष  विदेश में रहे थे ।  
बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन दिन व्यतीत किये । पति विदेश में हो और खर्च भी सीमित हों, ऐसी स्थिती में कठिनाईयां आनी एक साधारण सी बात थी । रमाबाई ने यह कठिन समय भी बिना किसी शिकवा-शिकायत के बड़ी धीरता से हंसते हंसते काट लिया । दिसंबर 1940 में बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने जो पुस्तक "थॉट्स ऑफ पाकिस्तान" लिखी व पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी "रमो" को ही भेंट की । भेंट के शब्द इस प्रकार थे-  
मैं यह पुस्तक "रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, अतीव सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं.." 

उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है कि माता रमाई ने बाबा साहब डॉ. आंबेडकर का किस प्रकार संकट के दिनों में साथ दिया और बाबा साहब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार और प्रेम था ।

बाबा साहब डॉ. अम्बडेकर जब अमेरिका गए तो माता रमाई गर्भवती थी । उन्होंने एक लड़के (रमेश) को जन्म दिया, परंतु वह बाल्यावस्था में ही चल बसा । बाबासाहब के लौटने के बाद एक अन्य लड़का गंगाधर का जन्म हुआ, परंतु उसका भी बाल्यकाल ढाई साल की अल्पायु में ही देहावसान हो गया । गंगाधर के मृत्यु की ह्रदय विदारक घटना का जिक्र करते हुए एक बार बाबा साहब ने अपने मित्र को बतलाया था कि ठीक से इलाज न हो पाने से जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढकने के लिए गली के लोगों ने नया कपड़ा लाने को कहा, मगर उनके पास उतने पैसे नहीं थे । तब रमा ने अपनी साड़ी से कपड़ा फाड़कर दिया था । वही मृत देह को ओढ़ाकर लोग श्मशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफना आए । उनका इकलौता बेटा (यशवंत) ही था, परंतु उसका भी स्वास्थ्य खराब रहता था । माता रमाई यशवंत की बीमारी के कारण पर्याप्त चिंतातूर रहती थी, परंतु फिर भी वह इस बात का पूरा ध्यान रखती थी, कि बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के कार्यों में कोई विघ्न न आए और उनकी पढ़ाई में बाधा न उत्पन्न हो । 

चारों बच्चों की  मृत्यु का कारण धनाभाव था, क्योंकि डॉ. अम्बेडकर स्वतन्त्र जीविकोपार्जन के काम की तलाश में थे । जिसके कारण घर की माली हालत बहुत खराब थी, जब पेट ही पूरा नहीं भर रहा हो तो बच्चों की बीमारी के इलाज के लिए पैसे कहाँ से लाते? बाबा साहब के सबसे बड़े पुत्र यशवंतराव ही जीवित रहे थे । वह भी हमेशा बीमार सा रहते थे । 
माँ रमाबाई काफी लम्बे समय तक बीमार रही और अंततः 27 मई 1935 को जब बाबा साहब डॉ.भीमराव अम्बेडकर कोर्ट से लौटे, तो रमाबाई ने इशारे से बाबा साहब को अपने पास बुलाया और  हाथों में हाथ लेकर कहा कि देखो आप मुझे वचन दो कि मेरे निधन के बाद आप हताश नहीं होंगे, हमारे बच्चे तो जिन्दा नहीं रह सके, समाज ही अपना बच्चा है; मुझे वचन दो कि आप उन्हें ब्राह्मणी व्यवस्था से आज़ाद करेंगे, ऐसा कहकर माता रमाबाई ने डॉ. अम्बेडकर को अकेला छोड़ इस दुनिया से विदा हो गई । 

हम सभी महिलायों को प्रेरणा लेनी चाहिए और उन्हें अपना आदर्श बनाना चाहिए ।
उनके सहयोग से ही बाबा साहब हम सबकी जिंदगी को पहचान दे गए ।

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