बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष

बुद्ध महान क्यों ❓
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आज बुद्ध पू्र्णिमा है। बुद्ध पूर्णिमा के ही दिन सिद्धार्थ गोतम (पालि मे गोतम और हिन्दी मे गौतम) का इस धरा पर अवतरण हुआ, आज ही के दिन गोतम तथागत बुद्ध हुए, और आज ही के दिन उनका महापरिनिर्वाण भी हुआ। क्या उन्होंने आज की परिभाषाओं में किसी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, या रिलीजन की स्थापना की ❓

स्पष्ट उत्तर है – नहीं👈

 फिर बौद्ध धर्म क्या है❓

पहले यह समझा जाएँ कि धर्म क्या है❓

 किसी भी धर्म के संस्थापक उस समय के परिस्थितिओं में उनके समाज में व्याप्त सामाजिक गतिहीनता और सड़न को दूर करने के लिए एक वैचारिक एवं सांस्कृतिक सफल आन्दोलन चलाते हैं। बाद के समय में उनके कुछ बुद्धिमान अनुयायी उनके दर्शन का अपनी समझ से, लेकिन उनके ही नाम पर, अपने कतिपय हितों को प्राथमिकता में रख कर व्याख्या करते है और उस विशिष्ट दर्शन को धर्म का नाम दे देते हैं। कुछ लोग अपनी शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक समझ के अनुसार इसे दर्शन मान कर उसकी अच्छी बातों को ग्रहण करने के साथ मानवता के धर्म को बढ़ाते और मानते है तो कुछ इन्हीं व्याख्याओं को ही धर्म मान कर चलते है। यही बुद्ध के दर्शन के साथ हुआ है। जापान, चीन, कोरिया आदि देश इनके विचारों को दर्शन मान कर चलता है और इसी कारण ये देश शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर ज्यादा जोर देते है, जबकि थाईलैंड, म्यांमार, भारत के लोग इसे धर्म मानते हैं और इसी कारण ये शिक्षा की तुलना में मन्दिर एवं आराधना पर ज्यादा जोर देते है।

मेरे अनुसार तथागत बुद्ध ने मानवता को तीन अद्वितीय चीजें दिया जिसके कारण ये महान कहलाए और इसी कारण भारत विश्व गुरु कहलाया👈

पहला - संज्ञानात्मक क्रांति का सैद्धांतिककरण (Theorization of Cognative Revolution) 👈
दूसरा – नव उदित समाज और राज्य के विकास का सम्यक दर्शन का प्रतिपादन, एवं 👈
तीसरा - आत्म निरीक्षण, आत्म नियंत्रण, और आत्म केंद्रण का तकनीक अर्थात मन की क्रिया विधि (Mechanics of Mind) का वैज्ञानिक उपस्थापन👈

जीव विज्ञान और मानव विज्ञान के शब्दावली में हम लोग होमो सेपिएंस कहलाते है जिसका अर्थ होता है- आधुनिक मानव। जैविक रुप में आधुनिक मानव की उत्पत्ति कोई डेढ़ लाख वर्ष पुर्व अफ्रिका के वोत्स्वाना में हु़ई परन्तु उनमें संज्ञानात्मक क्रांति कोई सत्तर हजार वर्ष पुर्व में हु़ई। संज्ञानात्मक क्रांति का अर्थ हुआ – किसी मानवीय और प्राकृतिक घटनाओं या प्रक्रियाओं का अवलोकन करना (अध्ययन करना), उन घटनाओं या प्रक्रियाओं के सार को धारण करना (स्मॄति में रखना), और उनको संप्रेषित करना। इस उत्परिवर्तन (mutation) के साथ ही प्राकृतिक गतिविधियों को समझने और अनुकूलित करने की क्षमता विकसित होने लगा। मानव इतिहास में इन प्रक्रियायो को समझ कर एक सिद्धांत में पिरोने वाले यह पहले व्यक्ति थे। इसके पहले किसी ने इसे इस दृष्टिकोण से ना तो देखा और ना ही इसका सैद्धांतिककरण किया। तथागत बुद्ध ने इसे दूसरे रुप में कहा- 
बुद्धम शरणम्‌ गच्छामि ।
धम्म शरणम्‌ गच्छामि ॥
संघ शरणम्‌ गच्छामि ।॥
बुद्ध एक परम्परा है। जिनके पास बुद्धि होता है, जो ज्ञानी होता है, वही बुद्ध कहलाता है। इसी कारण सिद्धार्थ गौतम के पहले भी कोई 27 बुद्ध (कुल 28 बुद्ध) हुए। साक्ष्ययात्मक रूप में इनसे से पहले कोई 6 बुद्ध (कुल 7 बुद्ध) हुए। 

इसीलिए बुद्धम शरणम्‌ गच्छामि का अर्थ हुआ- बुद्धि के शरण में जाओ👈

बुद्धि अवलोकन और अध्ययन से आता है। धम्म शरणम्‌ गच्छामि का अर्थ हुआ- धम्म के शरण में जाओ👈

पालि के धम्म और हिन्दी के धर्म में अन्तर है। पालि में ‘धारेती ति धम्मो’ का अर्थ है – जो धारण करें सो धर्म👈

आपने अवलोकन और अध्ययन में जो पाया है, उसके मनन या मंथन उपरांत जो सार या निष्कर्ष निकला, उसको धारण करें। यही धम्म है और धम्म शरणम्‌ गच्छामि का यही अर्थ है👈

 संघ शरणम्‌ गच्छामि का अर्थ हुआ- आपने अवलोकन और अध्ययन के बाद जो भी धारित (स्मॄति में) किया , उसका सम्प्रेषण करें। सम्प्रेषण कहां करेंगे? समाज में समान मानसिकता वाले लोगों के बीच। इसी समान मानसिकता वाले लोगों के एकत्रीकरण को ही संघ कह्ते है👈

संघ मे धारित निष्कर्ष पर विचार होता है, विमर्श होता है ताकि धारित निष्कर्ष को लोग भी समझे, परिष्कृत करें और सर्व जन को उसका लाभ मिल सके। संज्ञानात्मक क्रांति के यह सिद्धांतिकरण आज भी सही और उपयोगी है। यही विज्ञान का आधार बना। व्यवस्थित ज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है। यह व्यवस्थित ज्ञान किसी विषय वस्तु पर सम्यक अवलोकन, सम्यक अध्ययन, सम्यक विचारण, एवं सम्यक प्रयोग के आधार पर मिलता है। इनका ‘हेतुवाद’ कहता है कि प्रत्येक घटना का कोई कारण अवश्य होता है। इसी कार्य- कारण के सम्बन्ध पर विज्ञान टिका हुआ है। किसी घटना में कभी कभी कारण और इसके परिणाम एक दूसरे के इतने समीप होते हैं कि कार्य के कारण का पता लगाना या उसे समझना कठिन हो जाता है तो लोग इसे जादू या करिश्मा कहते हैं। किसी घटना में कभी कभी कारण और इसके परिणाम एक दूसरे के इतने दूर या विलम्बित हो होते हैं कि कार्य के कारण का पता लगाना या उसे समझना कठिन हो जाता है तो लोग इसे भाग्य का फल कहते हैं। हर कार्य का कारण अवश्य होगा अर्थात कारण बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। इसे बौद्ध दर्शन में ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ कहा गया। इसी के आधार पर आज अवलोकन, विचारण, अध्ययन, अन्वेषण, परीक्षण, प्रक्षेपण किया जाता है जो आधुनिक विज्ञान का आधार है। यह इस महामानव का अमूल्य योगदान है👈

तथागत बुद्ध का दुसरा महत्वपूर्ण योगदान है- नव उदित समाज एवं राज्य के सम्यक विकास का दर्शन का प्रतिपादन। कोई बारह हजार वर्ष पुर्व मानव सभ्यता के इतिहास में कृषि क्रांति हु़ई। कृषि की क्रांति से अनाजों के उत्पादन और पशुपालन के उत्पादों से अतिरिक्त (surplus) उत्पादन, परिवहन एवं भंडारण शुरु हुआ जो नागरीय जीवन और राज्य का आधार बना। लोहा (iron) के प्रयोग ने इसमें इसकी गति को तीव्र कर दिया और नागरीय समाज की आबादी बहुत बढ़ गयी थी। कई बुद्धिमान लोगों ने इसके सम्यक विकास के लिए सिद्धांत बनाए जिन्हें पुर्ववर्ती बुद्ध कहा गया। बुद्ध के जीवन काल में सिंधु - गंगा के मैदान में बौद्ध साहित्य के अनुसार कोई 62 दर्शन तथा जैन साहित्य के अनुसार कोई 263 दर्शन प्रचलित थे। सिद्धार्थ उस समय के प्रमुख शिक्षा केन्द्रों, जो राजगृह और वैशाली में एवं उसके आस पास थे, में उस समय के प्रचलित सभी दर्शनों का सम्यक अध्ययन किया। उसके बाद उन अध्ययनों पर निष्कर्ष निकालने के लिए मनन और मंथन के लिए गया के शांत वनों मे चले गए। वहां उन्होंने छह वर्ष का समय निष्कर्ष निकालने के लिए दिया। यह निष्कर्ष मानव जीवन में सुख, शान्ति, सन्तुष्टि, और समृद्धि स्थापित करने वाला सिद्धांत है जो न्याय, समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व पर आधारित है। आज विश्व के सभी विकसित समाज और राष्ट्र इसी सिद्धांत पर आधारित है। भारत का संविधान भी इसी मूलाधार पर आधारित है। इनका ‘आष्टाँगिक मार्ग’, ‘पंचशील‘, और ‘दस प्रज्ञामिताए’ इन्हीं सिद्धांतों निरूपित करता है। उस समय ज्ञात विश्व की सभी नदी घाटी सभ्यताओं में उभरते नागरीय समाज और राज्यों के सम्यक विकास के लिए एक सम्यक दर्शन की खोज थी। इसी दर्शन को जानने और अध्ययन के लिए उस समय के ज्ञात दुनियाँ के हर कोने से जिज्ञाशु और शिक्षार्थी भारत आते रहे। कहा जाता है कि ईसा मसीह ने कश्मीर में कोई तेरह वर्ष रहकर इन बौद्धिक अध्ययनों को आत्मसात किया और अपने समाज की तात्कालिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरुप परिमार्जित शिक्षाओ का प्रसार किया। इसी तरह कहा जाता है कि पैगम्बर मोहम्मद साहब भी पंजाब और कश्मीर में रहे जिनके पवित्र केश आज भी श्रीनगर के एक मस्जिद में सुरक्षित है। ये भी लम्बे समय का उपयोग इन बौद्धिक अध्ययनों को आत्मसात करने में किया। इन्होंने भी अपने समाज की तात्कालिक सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप परिमार्जित शिक्षाओं का प्रसार किया। इन दोनों दार्शनिकों के आन्दोलन मानवता को सुख, शान्ति, सन्तुष्टि, और समृद्धि देने वाला है जो न्याय, समानता, स्वतंत्रता, और बंधुत्व के सिद्धांत पर आधारित है। इसी कारण माईकल नोस्तर्दैमस (1503-1566) ने कहा था- “बुद्ध का धम्म ही यूरोप का शासक धर्म बन जाता यदि यशु को सुली पर चढ़ाया नहीं गया होता। बुद्ध का प्रभाव समाप्त नहीं हुआ है, बल्कि अन्य रूपों में रुपांतरित हो गया है।” यहां चीन, पुर्वी एशिया, पश्चिम जगत और अरब की दुनियाँ से कई अध्येता आते रहे। वैज्ञानिक क्रांति के पहले इतनी ही दुनियाँ मौजूद थी। इनका मानवता को सुख, शान्ति, सन्तुष्टि, और समृद्धि देने वाला आदर्श आज भी मानवता का आदर्श है। इस आदर्श को प्राप्त करने का सिद्धांत प्राकृतिक न्याय एवं विधिक न्याय है जो मानवता को समानता का अवसर देता है और इसके लिए स्वतंत्रता एवं बंधुत्व का साथ होना आवश्यक है। मध्य काल (भक्ति काल), जो सामंतो का काल रहा, में सामंती शक्तियों को जनता की भक्ति चाहिए था और इसी कारण उस काल में सभी पंथो और धर्मो में सामंती भक्ति का पुरा प्रभाव पड़ा। इन कालजयी विकासात्मक सिद्धांतो के लिए यह महामानव इतिहास में सदैव याद किए जाते रहेंगे।

इन्होंने विचार एवं दर्शन और शासनात्मक नीतियों एवं आयोजनाओ के सम्यक प्रचार और प्रसार के लिए मार्केटिंग प्रबंधन का सिद्धांत दिया जो आज भी उपयुक्त है और अध्ययन का विषय है। केलौग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के मार्केटिंग प्रबंधन के प्रोफेसर फिलीप कोटलर भी विचारों और नीतियों के मार्केटिंग प्रबंधन सिद्धांत दिए हैं जो इसी दर्शन पर आधारित है। बुद्ध का ही सफल मार्केटिंग प्रबंधन था जिसके कारण इनके दर्शन को जनता और शासकों का अपार समर्थन मिला और बाद में इसी के आधार पर विश्व को प्रभावित किया। आज जब बेहतर मार्केटिंग प्रबंधन के सिद्धांतों का अवलोकन एवं अध्ययन किया जाता है तो बुद्ध के दर्शन के मार्केटिंग प्रबंधन से काफी समानता मिलती है जो एक अलग अनुसंधान का विषय है। इस तरह इन्हें मार्केटिंग प्रबंधन के प्रथम सिद्धांतकार कहा जाना चाहिए।

इन्होंने इस नव उदित समाजों के लिए समाजिक बुद्धिमता (social intelligence) दिया जो व्यक्तिओ को समाज में अनुकुलन और महत्तम सफलता के लिए अनिवार्य है। उन्होंने सामान्य बुद्धिमता (सामान्य शिक्षा – intelligent quotient- IQ ) के साथ साथ भावनात्मक बुद्धिमता (emotional quotient- EQ) और सामाजिक बुद्धिमता (social quotient- SQ) पर भी जोर दिया। सामान्य बुद्धिमता सामान्य शिक्षा से आती है जिसे जानकारी भी कह सकते है। भावनात्मक बुद्धिमता में अपनी भावनाओं के साथ साथ सामने वाले की भावनाओ को भी समझना और ध्यान रखना होता है। इसमें दुसरे की भावनाओं को समझना और अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना होता है। जीवन में सफलता के लिए अन्य दोनों से महत्वपूर्ण है- सामाजिक बुद्धिमता। सामाजिक बुद्धिमता समाज की भावनाओं को जानना और समझना है और इसी कारण इसमें सामाजिक परिवर्तन के अनुसार अनुकूलित करने की क्षमता है। भावनात्मक बुद्धिमता जहां वर्तमान से संबंधित है, वहीं सामाजिक बुद्धिमता भविष्य से संबंधित है। इनका आष्टाँगिक मार्ग और दस प्रज्ञा पारमिताएं का अनुपालन ही सामाजिक बुद्धिमता है। इनके इन तरीकों को ही आज सामाजिक बुद्धिमता कहा जाता है। इसलिए इन्हें सामाजिक बुद्धिमता का प्रथम प्रवर्तक कहा जा सकता है।

तथागत बुद्ध का मानवता को तीसरा महत्वपूर्ण योगदान है- आत्म निरीक्षण, आत्म नियंत्रण, और आत्म केंद्रण का तकनीक अर्थात मन की क्रियाविधि का प्रथम उपस्थापन। तथागत बुद्ध ने मन को परिदृश्य के सभी चीजों का केन्द्र बिंदु स्वीकार किया है। मन को सभी चीजों का पुर्वगामी माना है। मन ऊर्जा (तरंग) पर प्रभाव डालकर उन चीजों को उत्पन्न करता है जिसको मन उत्पन्न करना चाहता है। मन यदि नियंत्रण में है तो सब कुछ नियंत्रण में है। मन ही सब मानसिक क्रियाओं में प्रधान है। मन ही मुख्य है। मन ही सभी चैतसिक (चित्त या चेतन संबंधी) क्रियाओं का उपज है। इसलिए सबसे मुख्य बात मन की साधना है। मन ही एक साधन है जिससे व्यक्ति को दिव्यता प्राप्त हो सकता है। मन को जिस दिशा में ले जाना चाहें, हम उसे उस दिशा में ले जा सकते है। आज हम जो कुछ हैं, वह अब तक के सोच का परिणाम है। बदले इच्छित स्वरुप में खुद को पाने के लिए आज से ही अपना सोच बदलना होगा। हम जो सोचते रहते हैं, जिस सोच में हम विश्वास करते हैं, हम वही बन जाते हैं। सोच क्या है? किसी स्थिति पर मन का स्थायित्व ही सोच है। मन ही सोच का उत्पादनकर्ता है। क्वांटम भौतिकी का स्ट्रिंग सिद्धांत (string theory), और अवलोकन शक्ति का सिद्धांत (theory of observer effect) भी इसी धारणा को पुष्ट करता है कि जब हम किसी वस्तु पर मन स्थिर करते हैं अर्थात अपनी सोच को स्थिर करते हैं तो उस वस्तु के उन तरंगीय ऊर्जा में से प्रकटीकरण की संभावना बढ़ जाती है, जिस वस्तु को हम प्रकट देखना या पाना चाहते हैं। इसके लिए मन का स्थिरीकरण या संकेद्रण आवश्यक है और इसी प्रविधि को इन्होंने खोजा और स्थापित किया।

जीवन में सुख एवं शांति से ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का समुचित विकास होता है, जीवन में समृद्धि आती है और मानव का कल्याण होता है। जब हम दुखी रहते हैं तो हम अपने आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देते हैं। हम जिस भी विचार पर लगातार ध्यान देते रहते हैं, उन विचारों का प्रजनन एवं सम्वर्धन कई दिशाओं में चलता रहता है। ध्यान देते रहते से उनमें ऊर्जा का संचार होता है और उसमें ऊर्जा का वृद्धि होती है। दुखी करने वाले विचारों को ही विकार कहते है। वस्तुत: मन में उत्पन्न विकार चेतनता पर फैल जाता है और हावी हो जाता है। इसके समाधान में उन्होंने पाया कि अपने मन एवं शरीर के भीतर की सच्चाई को अनुभव किया जाय। जब भी मन में विकार आए तो उसे देखा जाए, उसका सामना किया जाए। जैसे ही हम विकार को निष्पक्ष भाव से देखना शुरु कर देगें, वह विकार क्षीण होता जाता है। परन्तु विकारों का सामना करना सहज और आसान नहीं होता है क्योँकि विकार उभरते ही भावनाओं पर छा जाता है। चूँकि दिमाग (विवेक) हमेशा दिल (भावनाओं) से हार जाता है, इसिलिए भावनाओं के छा जाने पर दिमाग पक्ष शांत पड़ जाता है। मन मे विकार उत्पन्न होते ही शरीर पर उसी वक्त ही प्रतिक्रियाएँ होनी शुरु हो जाती है। पहली बात, साँस अपनी नैसर्गिक गति खो देता है और साँस तेज एवं अनियमित हो जाता है। दुसरी बात, शरीर में रसायनिक प्रक्रिया प्रभावित होने लगती है जिससे शरीर में कई हार्मोंस, उत्प्रेरक, एवं रसायन का निर्गमन होने लगता है। इनके सम्मिलित प्रभाव से सम्वेदनाओ (emotions) का निर्माण होता है। इस प्रकार हम साँसों और सम्वेदनाओ को देख, महसूस, और समझ कर विकारों को देखते है एवं सच्चाई का सामना करते है। निरन्तर अभ्यास से विकार क्षीण होकर समाप्त हो जाता है और विकार उत्पन्न करने वाला मन को नियंत्रित कर पाने में सफलता मिलती है।

हम अज्ञानतावश अपने दुख का कारण हमेशा बाहर ढूँढ़ते हैं। दुख को बाहरी कारण मान कर हम बाहरी परिस्थितियों को ही अपने ढंग से अनुकूलित करने का प्रयास करते हैं जो सदैव सम्भव नही है। हम यह समझ ही नहीं पाते हैं कि हमारे दुख का कारण बाहरी सुखद एवं दुखद सम्वेदनाओ के प्रति हमारी अंध प्रतिक्रियायो का परिणाम है और हमारी सारी प्रतिक्रियायो का स्रोत हमारे ही भीतर है। जब कोई प्रतिक्रिया बन्द होती है तो दुख का सम्वर्धन नहीं होता है और इस तरह उत्पन्न विकार क्रमश: क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। इस तरह मन (चित्त) शुद्ध हो जाता है। शुद्ध मन हमेशा प्यार से भरा होता है- सबके प्रति मंगल मैत्री, औरो के अभाव एवं दुख के प्रति करुणा, औरो के यश एवं सुख के प्रति मुदिता (चरम प्रसन्नता) और हर स्थिति मे समता। इस विधा में इन्होंने अपने शरीर एवं अपने साँसों पर ध्यान देने को कहा। इसमे कोई पंथ नही, कोई संप्रदाय नही, कोई श्रृंगार नही, कोई विशेष प्रतीक नहीं, मात्र अपनी नैसर्गिक साँसों की गतिविधि यानि आती- जाती साँसों पर ध्यान देना है। यही आत्म निरीक्षण, आत्म नियंत्रण, और आत्म केंद्रण का तकनीक अर्थात मन की क्रियाविधि है जिसका प्रथम अन्वेषण एवं उपस्थापन बुद्ध ने ही किया। मन को नियंत्रण में रखना और मन को इच्छित दिशा में संचालित करना ही बुद्ध का मुख्य अनुसंधान है जिसे विपस्यना कहा गया है।

यही उपरोक्त अनुसंधान एवं उपस्थापन उनके द्वारा मानवता को दिया गया है जिसके कारण ही इन्हें महामानव कहा गया। बुद्ध शिक्षा ही जीवन में सफलताओं का मूलाधार है। 
मैं उनको सादर नमन करता हूँ।

🇪🇺🏳‍🌈🙏🏻💐👏जय भीम
जय भारत 
नमो बुद्धाय 🙏🏻

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