राहुल सांसकृतयान एक बौद्ध दार्शनिक

*राहुल सांकृत्यायन जी* का पेंसिल स्कैच बनाया है - महान लेखक, बौद्ध दार्शनिक, इतिहासविद, पुरातत्ववेत्ता, त्रिपिटकाचार्य के साथ-साथ एशियाई नवजागरण के प्रवर्तक-नायक थे. 

 महान घुमक्कड़, महाविद्वान राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के पन्दहा ग्राम में 9 अप्रैल, 1893 को हुआ था. उनका असली नाम केदार पांडेय था, पर दुनिया उन्हें महाविद्वान राहुल सांकृत्यायन के नाम से जानती है. बचपन में ही माता कुलवन्ती देवी तथा पिता गोवर्धन पांडेय की असामयिक मृत्यु के चलते वह ननिहाल में पले बढ़े. उनकी शुरुआती शिक्षा उर्दू में हुई. 15 साल की उम्र में उर्दू माध्यम से मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण कर वह आजमगढ़ से काशी आ गए. यहां उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया और वेदान्त के अध्ययन के लिए अयोध्या पहुंच गए.  अरबी की पढ़ाई के लिए वह आगरा गए तो फारसी की पढ़ाई के लिए लाहौर की यात्रा की. 

*सैर कर दूनी की गाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ*
*जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहां*

अध्ययन और ज्ञान की पिपासा ने उन्हें एक शोधार्थी और घुमक्कड़ स्वभाव का बना दिया.  उन्होंने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की और खूब पढ़ा-लिखा. इस घुमक्कड़ी के चलते महापंडित हिंदी, उर्दू, संस्कृत, तमिल, कन्नड़, पालि, अंग्रेजी, जापानी, रूसी, तिब्बती और फ्रांसीसी भाषाओं के अच्छे जानकार हो गए. कहते हैं इनके अतिरिक्त भी उन्हें 20-25 भाषाओं का ज्ञान था. कुछ आलोचकों के मुताबिक महान यायावर-ज्ञानी राहुल सांकृत्यायन 36 भाषाओँ के ज्ञाता थे. इस घुमक्कड़ी से वह आर्य समाज, मार्क्सवाद और बौद्ध मत से प्रभावित हो गए. इसी तरह बौद्ध मत का अध्ययन करने के लिए उन्होंने चीन, जापान, श्रीलंका और तिब्बत आदि की कष्टपूर्ण यात्रा की और लंबे समय तक इन देशों के सुदूर इलाकों में प्रवास किया. कहा जाता है कि इन देशों में उन्हें जो भी प्राचीन पुस्तकें एवं पांडुलिपियां मिलीं, उन्हें वह सहेजते गए, और जब तिब्बत से भारत लौटे तो अपने साथ 22 खच्चरों पर लादकर ये ग्रंथ भी ले आए. इनमें से अधिकांश का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया. इस अध्ययन के दौरान वह बौद्ध धर्म से इतने प्रभावित हुए कि न केवल बौद्ध धर्म अपनाया, बल्कि अपना नाम भी राहुल सांकृत्यायन रख लिया. लखनऊ में उनकी मुलाकात भदंत आनंद कौशल्यायन जी से होने के बाद वे बौद्ध भिक्षु बन गए।

उन्होंने अपने व्याख्यानों, लेखों और पुस्तकों से पूरी दुनिया को भारत से बाहर बिखरे बौद्ध साहित्य से परिचित कराया. यह जिज्ञासा और तृप्ति 34 वर्ष की अवस्था में तब पूरी हुई, जब वे (1927) लंका गये और वहां के विद्यालंकार विहार में 19 मास तक रहे। वहां उन्हें पालि त्रिपिटक में बुद्ध वचनों को पढ़ने का अवसर मिला। साल 1931 में एक बौद्ध मिशन के साथ वह यूरोप की यात्रा पर चले गए.  

उन्होंने कहानी, उपन्यास, यात्रा वर्णन, जीवनी, संस्मरण, विज्ञान, इतिहास, राजनीति, दर्शन जैसे विषयों पर विभिन्न भाषाओं में लगभग 150 ग्रंथ लिखे.  'वोल्गा से गंगा तक' उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति है, जिसे वैश्विक ख्याति मिली. राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी के साथ-साथ भारत की सबसे प्राचीन भाषा पालि और संस्कृत को दुनिया में इस तरह प्रतिष्ठित कराया कि आज पालि और संस्कृत  के सबसे बड़े अध्येता भारत की बजाय, यूरोपीय देशों के निवासी हैं. 

वे बुद्ध के प्रजातांत्रिक विचारों से बहुत ज्यादा प्रभावित हुए थे। उन्होंने एक जगह लिखा है- *‘‘बुद्ध का जन्म एक प्रजातन्त्र (शाक्य) में हुआ था, और मृत्यु भी एक प्रजातन्त्र (मल्ल) ही में हुई। प्रजातन्त्र प्रणाली उनको कितनी प्रिय थी, यह इसी से मालूम है कि अजातशत्रु के साथ अच्छा सम्बन्ध होने पर भी उन्होंने उसके विरोधी वैशाली के लिच्छवियों की प्रशंसा करते हुए राष्ट्र को अपराजित रखने वाली (ये) सात बातें बतलायीं- *(1) बराबर एकत्रित हो सामूहिक निर्णय करना, (2) निर्णय के अनुसार कर्तव्य को एक हो करना, (3) व्यवस्था (कानून और विनय) का पालन करना, (4) वृद्धों का सत्कार करना, (5) स्त्रियों पर जबरदस्ती नहीं करना, (6) जातीय धर्म का पालन करना, (7) धर्माचार्यों का सत्कार करना।’’* कालामों को दिये गये बुद्ध के उपदेश- किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल कर उसे मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उस पर आरूढ़ हो- को सुना, तो हठात् दिल ने कहा- यहां है एक आदमी, जिसका सत्य पर अटल विश्वास है, जो मनुष्य की स्वतन्त्र बुद्धि के महत्व को समझता है। 
 
उनके महत्वपूर्ण ग्रन्थों में *वोल्गा से गंगा, बौद्ध दर्शन, बुद्धचर्या, महामानव बुद्ध, बाबासाहेब डॉ0आंबेडकर, बौद्ध संस्कृति, मध्य एशिया का  इतिहास, घुम्मकड़ शास्त्र, मेरी जीवन यात्रा, सिंह सेनापति, विश्व की रूपरेखा, दिमागी ग़ुलामी,  भागो नहीं दुनिया को बदलो, पालि साहित्य का इतिहास, दीघ निकाय, मझ्झिम निकाय, विनयपिटक, महापरिनिब्बान सुत्त,  दर्शन दिग्दर्शन* आदि शामिल हैं।

घुमक्कड़ पंथ के महान समर्थक सांकृत्यायन 1959  में दर्शनशास्त्र के महाचार्य के नाते एक बार फिर श्रीलंका गए; पर 1961 में उनकी स्मृति खो गई. इसी दशा में 14 अप्रैल, 1963 को उनका परिनिर्वाण हो गया.

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