नानक देव जी

नानक गृहस्थ भी हैं, संन्यासी भी- ओशो
 
नानक ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें गृहस्थ और संन्यासी एक हैं। और वही आदमी अपने को सिख कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो, संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो। 
 
सिख होना बड़ा कठिन है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना आसान है, छोड़कर चले जाओ जंगल में। सिख होना कठिन है क्योंकि सिख का अर्थ है- संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। 

रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय में हो। करना दुकान, लेकिन याद परमात्मा की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना। 
 
नानक को जो पहली झलक मिली परमात्मा की, जिसको सतोरी कहें, वह मिली एक दुकान पर, जहां वे तराजू से गेहूं और अनाज तौल रहे थे। अनाज तौल कर किसी को दे रहे थे। 

तराजू में भरते और डालते। कहते-एक, दो, तीन...दस, ग्यारह, बारह... फिर पहुंचे वे 'तेरा'। पंजाबी में तेरह का जो रूप है, वह 'तेरा'। उन्हें याद आ गई परमात्मा की।

तेरा', दाईन, दाऊ-धुन बन गई। फिर वे तौलते गए, लेकिन संख्या तेरा से आगे न बढ़ी। भरते, तराजू में डालते और कहते 'तेरा'। भरते, तराजू में डालते और कहते तेरा। क्योंकि आखिरी पड़ावआ गया। तेरा से आगे कोई संख्या है? मंजिल आ गई। 'तेरा' पर सब समाप्त हो गया। 

लोगों को लगा कि नानक सामान्य दुनियादार नहीं। लोगों ने रोकना भी चाहा, लेकिन वे तो किसी और लोक में हैं। वे तो कहे जाते हैं 'तेरा'। डाले जाते हैं, तराजू से तौले जाते हैं, और तेरा से आगे नहीं बढ़ते। तेरा से आगे बढ़ने की जगह ही कहाँ है। दो ही तो पड़ाव हैं, या तो 'मैं' या 'तू'। मैं से शुरुआत है, तू पर समाप्ति है। 

नानक संसार के विरोध में नहीं हैं। नानक संसार के प्रेम में हैं, क्योंकि वे कहते हैं कि संसार और उसका बनाने वाला दो नहीं। तुम इसे भी प्रेम करो, तुम इसी में उसको प्रेम करो। तुम इसी में उसको खोजो। 
 
नानक जब युवा हुए, तब घर के लोगों ने कहा, शादी कर लो। उन्होंने 'नहीं' न कहा। सोचते तो रहे होंगे घर के लोग कि यह नहीं कहेगा। बचपन से ही इसके ढंग अलग थे। नानक के पिता तो परेशान ही रहे। उनको कभी समझ में न आया कि क्या मामला है। भजन में, कीर्तन में, साधु-संगत में...। 
 
भेजा था बेटे को सामान खरीदने दूसरे गांव। बीस रुपए दिए थे। सामान तो खरीदा, लेकिन रास्ते में साधु मिल गए, वे भूखे थे। पिता ने चलते वक्त कहा था, सस्ती चीज खरीद लाना और इस गांव में आकर महंगी बेच देना। 

यही धंधे का गुर है। दूसरे गांव में सस्ते में खरीदना, यहां आकर महंगे में बेच देना। यहां जो चीज सस्ती हो खरीदना, दूसरे गांव में महंगे में बेचना। वही लाभ का रास्ता है। तो कोई ऐसी चीज खरीदकर लाना, जिसमें लाभ हो। नानक लौटते थे खरीदकर, मिल गई साधुओं की एक जमात। 


वे साधु पाँच दिन से भूखे थे। नानक ने पूछा,भूखे बैठो हो। उठो, कुछ करो। जाते क्यों नहीं गांव में? उन्होंने कहा, यही हमारा व्रत है। जब उसकी मर्जी होगी वह देगा। तो हम आनंदित हैं। भूख से कोई अंतर नहीं पड़ता। 
 
तो नानक ने सोचा कि इससे ज्यादा लाभ की बात क्या होगी कि इन परम साधुओं को यह भोजन बाँट दिया जाए जो मैं खरीद लाया हूँ बाहर गांव से? पिता ने यही तो कहा था कि कुछ काम लाभ का करो। 
 
उन्होंने वह सब सामान साधुओं में बाँट दिया। साथी था साथ में, उसका नाम बाला था। उसने कहा क्या करते हो, दिमाग खराब हुआ है। 

नानक ने कहा, यही तो कहा था पिता ने कुछ लाभ का काम करना। इससे ज्यादा लाभ क्या होगा? बांट कर वे बड़े प्रसन्न घर लौटे। 
 
पिता ने कहा भी कि ऐसे तो व्यापार नष्ट हो जाएगा। और नानक ने कहा, 'आप नहीं सोचते कि इससे ज्यादा लाभ की और क्या बात होगी? लाभ कमा कर लौटा हूं।' 

लेकिन यह लाभ किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। नानक के पिता कालू मेहता को तो बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता था। 

उनको तो लगता था, लड़का बिगड़ गया। साधु संगत में बिगड़ा। होश में नहीं है। सोचा कि शायद स्त्री से बांध देने से राहत मिल जाएगी। 
 
अक्सर लोग ऐसा सोचते हैं। सोचने का कारण है क्योंकि संन्यासी स्त्री को छोड़कर भागते हैं तो अगर किसी को गृहस्थ बनाना हो, 

तो स्त्री से बाँध दो। पर नानक पर यह तरकीब काम न आई क्योंकि यह आदमी किसी चीज के विरोध में न था। पिता ने कहा, 'शादी कर लो।' 

नानक ने कहा, 'अच्छा'। शादी हो गई, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क नहीं पड़ा। बच्चे हो गए, लेकिन उनके ढंग में कोई फर्क न पड़ा। 

इस आदमी को बिगाड़ने का उपाय ही न था, क्योंकि संसार और परमात्मा में उन्हें कोई भेद न था।

मरघट से गुजरना ही होगा-नानक

एक रात नानक अचानक घर छोड़कर चले गए। किसी को पता नहीं,कहां हैं। खोजा गया साधुओं की संगत में, मंदिरों में-जहां सम्भावना थी-पर कहीं भी वे मिले नहीं। 

और तब किसी ने कहा, मरघट की तरफ जाते देखा है। भरोसा किसी को न आया। मरघट अपनी मर्ज़ी से कोई जाता है कैसे है? मरघट ले जाने के लिए तो चार आदमियों की जरूरत पड़ती है। बामुश्किल कोई जाता है।

मरा हुआ आदमी भी जाना नहीं चाहता, तो ज़िंदा आदमी के तो जाने का कोई सवाल नहीं। लेकिन जब नानक को कहीं नहीं पाया, तो लोग मरघट पहुंचे।

मरघट में उन्होंने धूनी रमा रखी थी।।बैठे थे ध्यान में।घर के लोगों ने कहा,पागल हो गए हो? घर द्वार छोड़कर,बच्चे-पत्नी छोड़कर यहां क्या कर रहे हो? यह मरघट है यह पता है?

नानक ने कहा,यहां जो आ गया फिर कभी मरता नहीं।और जिसे तुम घर कहते हो, वहां जो भी है वह आज नहीं कल मरेगा। फिर मरघट कौनसी जगह है? जहां लोग मरते हैं वह मरघट है? 

या लोग जहां कभी नहीं मरते वह मरघट? औऱ फिर जब यहां एक दिन आ ही जाना है, तो चार आदमियों के कंधों पर चढ़कर क्या आना? शोभा नहीं देता,मैं खुद ही चला हूँ।

यह घटना बड़ी महत्वूवर्ण है। जो होना ही है, उससे नानक का संघर्ष नहीं है। जो होना ही है उसका स्वीकार है। मृत्यु भी होनी है, उसका भी स्वीकार है। औऱ क्या कष्ट देना दूसरों को वहां तक ले जाने के लिए?खुद उठकर चले जाना ही बेहतर है।

जो होगा,उससे हमारा विरोध बना ही रहता है।हमारी अपनी चाह है, तो वह भी नानक को स्वीकार है।


उस रात नानक को लोग समझा बुझा कर घर ले आए। लेकिन नानक फिर वैसे ही आदमी न रहे जैसे थे। कुछ उनके भीतर मर ही गया। 

और किसी नए का जन्म हो गया।जब कोई मरता है भीतर पूरी तरह,तभी नए का जन्म होता है। जन्म की वही प्रक्रिया है। मरघट से गुजरना ही होगा।और जो जानकर गुजर जाए, होश से गुजर जाए, उसे नया जन्म मिलता है।

वह नया जन्म नया शरीर का जन्म नहीं।वह नया जन्म नई चेतना का आविर्भाव है।

                        

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