बहिन जी के घटिया विरोधी

हमने वह दौर भी देखा है जब मधु लिमये जैसे 'समाजवादी ' बाबासाहब डा. अंबेडकर और कांशीराम की तुलना करते थे. वे कहते थे कि कांशीराम कभी अंबेडकर नहीं बन सकते हैं. कांशीराम सवर्णों का विरोध करते हैं, जबकि डा. अंबेडकर ने एक ब्राह्मणी से शादी किया. डा. अंबेडकर जातिवाद के विरूद्घ थे. कांशीराम जातियुद्ध व गृहयुद्ध के तर्ज पर काम करना चाहते हैं.
उनके ड्रेस सेंस पर कमेंट किया जाता था, उनके नारो पर तंज कसा जाता था. उन्हें हिंसक और बदजुबान प्रोजेक्ट किया जाता था. 
मधु लिमये ने तो यहां तक भविष्यवाणी कर दी थी कि यह पार्टी सरकार में आ तो गयी लेकिन तीन साल से ज्यादा नहीं चल पायेगी. यह पार्टी विलुप्त हो जायेगी .
इनके जातिवादी प्रोपगैंडा का जवाब देने के लिये मान्यवर ने जब ब्राह्मणों को टिकट देना शुरू किया तो ये नारा दिये -."ब्राह्मण नहीं चमार है, हाथी पर सवार है. "
उसी तरह ये सबकुछ करके थक गये तो कहने लगे कि कांशीराम दलित हैं ही नहीं, वह तो ब्राह्मण है जो ईसाई मिशनरी के इशारे पर भारत में हिंदू धर्म को खत्मकर देना चाहता है. 
यह प्रोपगैंडा भी नहीं चला , तो कांग्रेस कहने लगे कि कांशीराम सी आई ए एजेंट हैं. वहीं से उनको पार्टी फंड के लिये पैसा मिलता है. 
यह झूठ भी ज्यादा नहीं चला. तो कहने लगे कि कांशीराम के मरने के बाद यह आंदोलन खत्म हो जायेगा. कांशीराम लीडर ही विकसित नहीं करते. अपने कुर्सी पर बैठते हैं, विधायकों एवं मंत्रियों को जमीन पर बैठाते हैं. 
यह भी नहीं चला क्योंकि कांशीराम बहन जी को मुख्यमंत्री बना दिया. अब तो और दुष्प्रचार करने लगे कि एक औरत के चक्कर में कांशीराम कुछ भी कर सकते हैं. मायावती और कांशीराम को लेकर तरह -तरह के किवदंतिया भी गढ़ने लगे.
आज के दौर में वहीं लोग कांशीराम को महान बताते है. मायावती को हत्यारिन कहते हैं. कांशीराम को जो लोग जातिवादी कहते थे, अब मायावती के 'सर्वजन ' की आलोचना करते हैं.दरअसल ये सवर्णों के चमचे हैं, इनके पास अपनी विश्लेषण शक्ति नहीं है. सवर्ण इनके दिमाग में जो फिटकर देते हैं, वहीं ये बोलते हैं. ऐसे लोग को कूड़े में फेकने का समय आ चुका है. ऐसे समाज के गद्दारों की वजह से ही भाजपा के रूप में ब्राह्मणवाद तांडव कर रहा है.

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