पूना पैक्ट विशेष
_*24 सितंबर पूना पैक्ट दिवस पर विशेष---*_
♾️♾️♾️♾️♾️♾️♾️♾️ _*भारतीय हिन्दू समाज में जाति- को आधारशिला माना गया है इस में श्रेणीबद्ध असमानता के ढांचे में अछूत सबसे निचले स्तर पर हैं जिन्हें 1935 तक सरकारी तौर पर डिप्रेस्ड क्लासेज Depressed classes कहा जाता था गांधी जी ने उन्हें हरिजन के नाम से पुरस्कृत किया था जिसे अधिकतर अछूतों ने स्वीकार नहीं किया था अब उन्होंने अपने लिए दलित नाम स्वयम चुना है जो उनकी दलित स्थिति का परिचायक है वर्तमान में वे भारत की कुल आबादी का लगभग छठा भाग 16.20 % तथा कुल हिन्दू आबादी का पांचवा भाग (20.13 %) हैं*_
_*अछूत सदियों से हिन्दू समाज में सभी प्रकार के सामाजिक धार्मिक आर्थिक व शैक्षिक अधिकारों से वंचित रहे हैं और काफी हद तक आज भी हैं*_
_*दलित कई प्रकार की वंचनाओं एवं निर्योग्यताओं को झेलते रहे हैं उनका हिन्दू समाज एवं राजनीति में बराबरी का दर्जा पाने के संघर्ष का एक लम्बा इतिहास रहा है जब श्री. ई.एस. मान्तेग्यु, सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया ने पार्लियामेंट में 1917 में यह महत्वपूर्ण घोषणा की कि अंग्रेजी सरकार का अंतिम लक्ष्य भारत को डोमिनियन स्टेट्स देना है तो दलितों ने बम्बई में दो मीटिंगें करके अपना मांग पत्र वाइसराय तथा भारत भ्रमण पर भारत आये सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया को दिया परिणामस्वरूप निम्न जातियों को विभिन्न प्रान्तों में अपनी समस्यायों को 1919 के भारतीय संवैधानिक सुधारों के पूर्व भ्रमण कर रहे कमिशन को पेश करने का मौका मिला*_
_*तदोपरांत विभिन्न कमिशनों कांफ्रेंसों एवं कौंसिलों का एक लम्बा एवं जटिल सिलसिला चला सन 1918 में मॉन्टेग्यु चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के बाद 1924 में मद्दीमान कमेटी रिपोर्ट आई जिसमें कौंसिलों में डिप्रेस्ड क्लासेज के अति अल्प प्रतिनिधित्व और उसे बढ़ाने के उपायों के बारे में बात कही गयी*_
_*साईमन कमीशन 1928 ने स्वीकार किया कि डिप्रेस्ड क्लासेज को पर्याप्त प्रातिनिधित्व दिया जाना चाहिए*_
_*सन् 1930 से 1932 एक लन्दन में तीन गोलमेज़ कान्फ्रेंस हुयीं जिन में अन्य अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों के भी भारत के भावी संविधान के निर्माण में अपना मत देने के अधिकार को मान्यता मिली यह एक ऐतिहासिक एवं निर्णयकारी परिघटना थी इन गोलमेज़ कांफ्रेंसों में डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी तथा राव बहादुर आर श्रीनिवासन द्वारा दलितों के प्रभावकारी प्रतिनिधित्व एवं ज़ोरदार प्रस्तुति के कारण 17 अगस्त, 1932 को ब्रिटिश सरकार द्वारा घोषित कम्युनल अवार्ड में दलितों को पृथक निर्वाचन का स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकार मिला*_
_*इस अवार्ड से दलितों को आरक्षित सीटों पर पृथक् निर्वाचन द्वारा अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने तथा साथ ही सामान्य जाति के निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्णों को चुनने हेतु दो वोट का अधिकार भी प्राप्त हुआ इस प्रकार भारत के इतिहास में अछूतों को पहली वार राजनैतिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हुआ जो उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता था*_
_*उक्त अवार्ड द्वारा दलितों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1919 में अल्प संख्यकों के रूप में मिली मान्यता के आधार पर अन्य अल्प संख्यकों – मुसलमानों सिक्खों ऐंग्लो इंडियनज तथा कुछ अन्य के साथ-साथ पृथक निर्वाचन के रूप में प्रांतीय विधायकाओं एवं केन्द्रीय एसेम्बली हेतु अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार मिला तथा उन सभी के लिए सीटों की संख्या निश्चित की गयी इसमें अछूतों के लिए 78 सीटें विशेष निर्वाचन क्षेत्रों के रूप में आरक्षित की गयीं*_
_*महात्मा गाँधी ने उक्त अवार्ड की घोषणा होने पर यरवदा (पूना) जेल में 18 अगस्त 1932 को दलितों को मिले पृथक् निर्वाचन के अधिकार के विरोध में 20 सितम्बर 1932 से आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी*_
_*गाँधी का मत था कि इससे अछूत हिन्दू समाज से अलग हो जायेंगे जिससे हिन्दू समाज व हिन्दू धर्म विघटित हो जायेगा*_
_*यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने मुसलमानों सिक्खों व ऐंग्लो- इंडियनज को मिले उसी अधिकार का कोई विरोध नहीं किया था*_
_*गाँधी जी ने इस अंदेशे को लेकर 18 अगस्त 1932 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री श्री रेम्ज़े मैकडोनाल्ड को एक पत्र भेज कर दलितों को दिए गए पृथक् निर्वाचन के अधिकार को समाप्त करके संयुक्त मताधिकार की व्यवस्था करने तथा हिन्दू समाज को विघटन से बचाने की अपील की इसके उत्तर में ब्रिटिश प्रधान मंत्री ने अपने पत्र दिनांक 8 सितम्बर, 1932 में अंकित किया*_
_*ब्रिटिश सरकार की योजना के अंतर्गत दलित वर्ग हिन्दू समाज के अंग बने रहेंगे और वे हिन्दू निर्वाचन के लिए समान रूप से मतदान करेंगे परन्तु ऐसी व्यवस्था प्रथम 20 वर्षों तक रहेगी तथा हिन्दू समाज का अंग रहते हुए उनके लिए सीमित संख्या में विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे ताकि उनके अधिकारों और हितों की रक्षा हो सके वर्तमान स्थिति में ऐसा करना नितांत आवश्यक हो गया है जहाँ-जहाँ विशेष निर्वाचन क्षेत्र होंगे वहां वहां सामान्य हिन्दुओं के निर्वाचन क्षेत्रों में दलित वर्गों को मत देने से वंचित नहीं किया जायेगा इस प्रकार दलितों के लिए दो मतों का अधिकार होगा – एक विशेष निर्वाचन क्षेत्र के अपने सदस्य के लिए और दूसरा हिन्दू समाज के सामान्य सदस्य के लिए हम ने जानबूझ कर – जिसे आप ने अछूतों के लिए साम्प्रदायिक निर्वाचन कहा है उसके विपरीत फैसला दिया है दलित वर्ग के मतदाता सामान्य अथवा हिन्दू निर्वाचन क्षेत्रों में सवर्ण उम्मीदवार को मत दे सकेंगे तथा सवर्ण हिन्दू मतदाता दलित वर्ग के उम्मीदवार को उसके निर्वाचन क्षेत्र में मतदान क़र सकेंगे इस प्रकार हिन्दू समाज की एकता को सुरक्षित रखा गया है*_
_*कुछ अन्य तर्क देने के बाद उन्होंने गाँधी जी से आमरण अनशन छोड़ने का आग्रह किया था*_
_*परन्तु गाँधी जी ने प्रत्युत्तर में आमरण अनशन को अपना पुनीत धर्म मानते हुए कहा कि दलित वर्गों को केवल दोहरे मतदान का अधिकार देने से उन्हें तथा हिन्दू समाज को छिन्न भिन्न होने से नहीं रोका जा सकता*_
_*उन्होंने आगे कहा-*_
_*मेरी समझ में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था करना हिन्दू धर्म को बर्बाद करने का इंजेक्शन लगाना है इस से दलित वर्गों का कोई लाभ नहीं होगा*_
_*गांधी जी ने इसी प्रकार के तर्क दूसरी और तीसरी गोल मेज़ कांफ्रेंस में भी दिए थे जिसके प्रत्युत्तर में डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने गाँधी जी के दलितों के भी अकेले प्रतिनिधि और उनके शुभचिन्तक होने के दावे को नकारते हुए उनसे दलितों के राजनीतिक अधिकारों का विरोध न करने का अनुरोध किया था उन्होंने यह भी कहा था कि फिलहाल दलित केवल स्वतन्त्र राजनीतिक अधिकारों की ही मांग कर रहे हैं न कि हिन्दुओं से अलग हो कर अलग देश बनाने की परन्तु गाँधी जी का सवर्ण हिन्दुओं के हित को सुरक्षित रखने और अछूतों को हिन्दू समाज का गुलाम बनाये रखने का स्वार्थ था*_ _*यही कारण था कि उन्होंने सभी तथ्यों व तर्कों को नकारते हुए 20 सितम्बर 1932 को अछूतों के पृथक निर्वाचन के अधिकार के विरुद्ध गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया*_
_*यह एक विकट स्थिति थी एक तरफ गाँधी जी के पक्ष में एक विशाल शक्तिशाली हिन्दू समुदाय था दूसरी तरफ डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी और अछूत समाज था*_
_*अंतत भारी दबाव एवं अछूतों के संभव जनसंहार के भय तथा गाँधी जी की जान बचाने के उद्देश्य से डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी तथा उनके साथियों को दलितों के पृथक निर्वाचन के अधिकार (Rights of separate electorate of Dalits) की बलि देनी पड़ी और सवर्ण हिन्दुओं से 24 सितम्बर 1932 को तथाकथित पूना पैक्ट करना पड़ा*_
_*इस प्रकार अछूतों को गाँधी जी की जिद के कारण अपनी राजनैतिक आज़ादी के अधिकार को खोना पड़ा*_
_*यद्यपि पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए कम्युनल अवार्ड में सुरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 78 से 151 हो गयीं परन्तु संयुक्त निर्वाचन के कारण उनसे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने का अधिकार छिन्न गया जिसके दुष्परिणाम आज तक दलित समाज झेल रहा है*_
_*पूना पैक्ट के प्रावधानों को गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट 1935 में शामिल करने के बाद सन् 1937 में प्रथम चुनाव संपन्न हुआ जिसमें गाँधी जी के दलित प्रतिनिधियों को कांग्रेस द्वारा कोई भी दखल न देने के दिए गए आश्वासन के बावजूद कांग्रेस ने 151 में से 78 सीटें हथिया लीं क्योंकि संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में दलित पुनः सवर्ण वोटों पर निर्भर हो गए थे*_
_*गाँधी जी और कांग्रेस के इस छल से खिन्न होकर डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था पूना पैकट में दलितों के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है*_
_*कम्युनल अवार्ड के माध्यम से अछूतों के पृथक् निर्वाचन के रूप में अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने और दोहरे वोट के अधिकार से सवर्ण हिन्दुओं की भी दलितों पर निर्भरता से दलितों का स्वंतत्र राजनीतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सकता था परन्तु पूना पैक्ट करने की विवशता ने दलितों को फिर से सवर्ण हिन्दुओं का गुलाम बना दिया इस व्यवस्था से आरक्षित सीटों पर जो सांसद या विधायक चुने जाते हैं वे वास्तव में दलितों द्वारा न चुने जा कर विभिन्न राजनैतिक पार्टियों एवं सवर्णों द्वारा चुने जाते हैं जिन्हें उन का गुलाम बंधुआ बन कर रहना पड़ता है*_
_*सभी राजनैतिक पार्टियाँ गुलाम मानसिकता वाले ऐसे प्रतिनिधियों पर कड़ा नियंत्रण रखती हैं और पार्टी लाइन से हट कर किसी भी दलित मुद्दे को उठाने या उस पर बोलने की इजाजत नहीं देतीं यही कारण है कि लोकसभा तथा विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों की स्थिति तथाकथित महाभारत के भीष्म पितामह जैसी रहती है जिस ने यह पूछने पर कि जब कौरवों के दरबार में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो आप क्यों नहीं बोले? इस पर उन का उत्तर था मैंने कौरवों का नमक खाया था*_
_*वास्तव में कम्युनल अवार्ड से दलितों को स्वंतत्र राजनैतिक अधिकार प्राप्त हुए थे जिससे वे अपने प्रतिनिधि स्वयं चुनने के लिए सक्षम हो गए थे और वे उनकी आवाज़ बन सकते थे इस के साथ ही दोहरे वोट के अधिकार के कारण सामान्य निर्वाचन क्षेत्र में सवर्ण हिन्दू भी उन पर निर्भर रहते और दलितों को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं करते इस से हिन्दू समाज में एक नया समीकरण बन सकता था जो दलित मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करता परन्तु गाँधी जी ने हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म के विघटित होने की झूठी दुहाई दे कर तथा आमरण अनशन का अनैतिक हथकंडा अपना कर दलितों की राजनीतिक स्वतंत्रता का हनन कर लिया जिस कारण दलित फिर से सवर्णों के राजनीतिक गुलाम बन गए*_
_*वास्तव में गाँधी जी की चाल काफी हद तक राजनीतिक भी थी जो कि बाद में उनके एक अवसर पर सरदार पटेल को कही गयी इस बात से भी स्पष्ट है कि-*_
_*अछूतों के अलग मताधिकार के परिणामों से मैं भयभीत हो उठता हूँ दूसरे वर्गों के लिए अलग निर्वाचन अधिकार के बावजूद भी मेरे पास उनसे सौदा करने की गुंजाइश रहेगी परन्तु मेरे पास अछूतों से सौदा करने का कोई साधन नहीं रहेगा वे नहीं जानते कि पृथक निर्वाचन हिन्दुओं को इतना बाँट देगा कि उसका अंजाम खून खराबा होगा अछूत गुंडे मुसलमान गुंडों से मिल जायेंगे और हिन्दुओं को मारेंगे क्या अंग्रेजी सरकार को इस का कोई अंदाज़ा नहीं है? मैं ऐसा नहीं सोचता-- (महादेव देसाई, डायरी, पृष्ठ 301, प्रथम खंड)*_
_*गाँधी जी के इस सत्य कथन से आप गाँधी जी द्वारा अछूतों को पूना पैक्ट करने के लिए बाध्य करने के असली उद्देश्य का अंदाज़ा लगा सकते हैं*_
_*दलितों की संयुक्त मताधिकार व्यवस्था के कारण सवर्ण हिन्दुओं पर निर्भरता के फलस्वरूप दलितों की कोई भी राजनैतिक पार्टी पनप नहीं पा रही है चाहे वह डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ही क्यों न हो इसी कारण डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी को भी दो बार चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा क्योंकि आरक्षित सीटों पर सवर्ण वोट ही निर्णायक होता है इसी कारण सवर्ण पार्टियाँ ही अधिकतर आरक्षित सीटें जीतती हैं*_
_*पूना पैक्ट के इन्हीं दुष्परिणामों के कारण ही डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने संविधान में राजनैतिक आरक्षण को केवल 10 वर्ष तक ही जारी रखने की बात कही थी परन्तु विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ इसे दलितों के हित में नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अब तक लगातार 10-10 वर्ष तक बढ़ाती चली आ रही हैं क्योंकि इस से उन्हें अपने मनपसंद और गुलाम दलित सांसद और विधायक चुनने की सुविधा रहती है*_
_*सवर्ण हिन्दू राजनीतिक पार्टियाँ दलित नेताओं को खरीद लेती हैं और दलित पार्टियाँ कमज़ोर हो कर टूट जाती हैं यही कारण है कि उत्तर भारत में तथाकथित दलितों की कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी जीता जागता उदाहरण है- पूना पैक्ट का दलित समाज के बड़े नेताओं ने विरोध किया था बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक मान्यवर साहब कांशीराम जी ने पूना पैक्ट के बाद के युग को चमचा युग कहा था उन्होंने पूना पैक्ट के 50 साल पूरे होने पर 23 सितंबर 1982 को अपनी एक किताब का विमोचन किया किताब का नाम था एन एरा ऑफ स्टूजेज यानी चमचा युग मान्यवर साहब कांशीराम जी ने लिखा था कि - पूना पैक्ट की वजह से ही दलित अपने वास्तविक प्रतिनिधि चुनने से वंचित कर दिए गए उन्हें हिंदुओं द्वारा नामित प्रतिनिधि को चुनने के लिए मजबूर कर दिया गया ये थोपे गए प्रतिनिधि हिंदुओं के औजार या चमचे के रूप में कार्य करने के लिए मजबूर हैं मान्यवर साहब कांशीराम जी का मानना था कि 24 सितंबर 1932 को दलितों को चमचा युग में ढकेल दिया गया*_
_*दलितों का बहुत अहित हुआ है वे राजनीतिक तौर प़र सवर्णों के गुलाम बन कर रह गए हैं*_
_*अतः इस सन्दर्भ में पूना पैक्ट के औचित्य की समीक्षा करना समीचीन होगा क्या दलितों को पृथक निर्वाचन की मांग पुनः उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए?*_
_*यद्यपि पूना पैक्ट की शर्तों में छुआ-छूत को समाप्त करने सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने तथा दलितों की शिक्षा के लिए बजट का प्रावधान करने की बात थी परन्तु आजादी के 74 वर्ष बाद भी उनके क्रियान्वयन की स्थिति दयनीय ही है*_
_*डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने अपने इन अंदेशों को पूना पैक्ट के अनुमोदन हेतु बुलाई गयी 25 सितम्बर, 1932 को बम्बई में सवर्ण हिन्दुओं की बहुत बड़ी मीटिंग में व्यक्त करते हुए कहा था*_
_*हमारी एक ही चिंता है क्या हिन्दुओं की भावी पीढ़ियां इस समझौते का अनुपालन करेंगी ?*_
_*इस पर सभी सवर्ण हिन्दुओं ने एक स्वर में कहा था हाँ हम करेंगे*_
_*डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी ने यह भी कहा था-*_
_*हम देखते हैं कि दुर्भाग्यवश हिन्दू सम्प्रदाय एक संगठित समूह नहीं है बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों की फेडरेशन है मैं आशा और विश्वास करता हूँ कि आप अपनी तरफ से इस अभिलेख को पवित्र मानेंगे तथा एक सम्मानजनक भावना से काम करेंगे*_
_*क्या आज सवर्ण हिन्दुओं को अपने पूर्वजों द्वारा दलितों के साथ किये गए इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने के बारे में थोड़ा बहुत आत्म चिंतन नहीं करना चाहिए यदि वे इस समझौते को ईमानदारी से लागू करने में अपना अहित देखते हैं तो क्या उन्हें दलितों के पृथक निर्वाचन का राजनैतिक अधिकार लौटा नहीं देना चाहिए?*_
_*मेरे विचार में अब समय आ गया है जब दलितों को संगठित हो कर आरक्षित सीटों पर वर्तमान संयुक्त चुनाव प्रणाली की जगह पृथक चुनाव प्रणाली की मांग उठानी चाहिए ताकि वे अपने प्रतिनिधियों को सवर्णों की जगह स्वयम चुनने में सक्षम हो सकें।*_
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