अनागरिक धम्म पाल ✍

19वीं शताब्दी के मध्य में बौद्ध पुनर्जागरण अभियान के पुरोधा बोधिसत्व अनागारिक धम्मपाल जी के 157 वें जन्मोत्सव के अवसर पर YFBI की ओर से कोटि - कोटि हार्दिक शुभकामनाएं।
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*भारत में बुद्ध मार्ग के प्रथम उद्धारक अनागारिक धर्मपाल*

जन्म 17 सितंबर 1864
स्थान - सिंहल देश।(वर्तमान सिरीलंका)

श्रीलंकाई मूल के अनागारिक धर्मपाल को भगवान बुद्ध के मार्ग का उद्धारक माना जाता है। उन्हें बुद्ध मार्ग के प्रति अगाढ़ प्रेम व धर्म के प्रचार-प्रसार आदि के लिए किए कृत्यों के कारण कई बौद्ध ग्रंथों में धर्मदूत की संज्ञा दी गई है।
भगवान बुद्ध द्वारा खोजी गयी दुःख मुक्ति के मार्ग को, जब प्रच्छन्न बौद्ध (शंकराचार्य) के अनुयायियों ने खत्म कर दिया था और भगवान बुद्ध की ज्ञान स्थली (महाबोधि स्थल) को अपने कब्जे मे कर लिया था, तो उस मार्ग (बौद्ध धर्म) को जीवंत रखने के लिए मई 1891 में भारत, श्रीलंका व अन्य देशों में महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की और महाबोधि मंदिर को आदि शंकराचार्य मठ के कब्जे से मुक्त कराने में अहम योगदान दिया। देश ही नहीं अपितु विदेशों में स्थित महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया का स्थापना दिवस अनागारिक धर्मपाल की जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष उनका 157 वीं जयंती सोसाइटी के सभी शाखाओं में धूमधाम से मनाई जा रही है।

अनागारिक का शाब्दिक अर्थ 'बिना घर का' (होम लेस) होता है। इनका बचपन का नाम डान डेविड हेवाविर्तना था। उनका शैक्षणिक जीवन ईसाई विद्यालय से प्रारंभ हुआ। अध्ययन के क्रम में भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों की ओर ध्यान तब आकृष्ट हुआ। जब उन्होंने #लाइट_आफ_एशिया' के लेखक सर एडविन अर्नाल्ड के 1885 में छपे एक लेख में महाबोधि मंदिर की दयनीय दशा को पढ़ा। उस लेख में मंदिर की दशा और इसे नष्ट होने से बचाने का आह्वान भी किया गया था। जनवरी 1891 में अनागारिक धर्मपाल भारत भ्रमण के दौरान बोधगया आए। तब उन्होंने अक्टूबर माह में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन का अयोजन बोधगया में कराया और महाबोधि मंदिर की मठ के कब्जे से मुक्ति के लिए बिहार प्रांतीय कांग्रेस में मामले को रखा और अधीनस्थ न्यायालय से लेकर प्रीवी काउंसिल तक कानूनी लड़ाई भी लड़ी। उसके बाद इसका सर्वमान्य हल के लिए बिहार हिन्दू सभा की बैठक बुलाई गई।

धर्मपाल के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप और अंतराष्ट्रीय दबाव के कारण उनके निधनोपरांत तत्कालीन आजाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के हाथों महाबोधि मंदिर को वैशाख पूर्णिमा, संवत 2012 अर्थात्‌ 6 मई, सन 1955 को धर्म विद्वेसी से मुक्त करते हुए बौद्धों को दे दिया गया।
परंतु यह आंशिक मुक्ति है, पूर्ण मुक्ति की लड़ाई अभी जारी रखे। अभी भी महाबोधि समिति में धर्म विद्वेसी को सदस्य के तौर पर शामिल करना अनिवार्य नियम है।

13 जुलाई, 1931 को अनागारिक धर्मपाल ने प्रवज्या ली और उनका नाम 'देवमित धर्मपाल' हुआ।
1933 की 16 जनवरी को प्रवज्या पूर्ण हुई और उन्होंने उपसंपदा ग्रहण की, तब उनका नाम पड़ा 'भिक्षु श्री देवमित धर्मपाल'।
29 अप्रैल, 1933 को 69 वर्ष की आयु में अनागारिक धर्मपाल का परिनिर्वाण हो गया। उनकी अस्थियाँ आज भी पत्थर के एक छोटे-से स्तूप में 'मूलगंध कुटी विहार' (सारनाथ) के पास रखी हुई है।

भारत मे भगवान की खोई हुई विरासत को पुनः स्थापित करने वाले धर्म प्रिय अनागरिक धम्मपाल जी के जयंती पर उनको स्मरण करते हुए उन्हें त्रिवार नमन वंदन करता हूँ। 
✍Vidrohi Sagar Ambedkar/सागर गौतम निडर
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