अंबेडकर वाद का पुनर्जन्म |

#अम्बेड़करवाद_का_पुनर्जन्म
अगर मै गैर-राजनैतिक तौर पर ये कहुँ कि डॉ अम्बेड़कर की मृत पड़ी विचारधारा को भारत मे जिंदा करने का श्रेय मान्यवर काशीराम जी और बहन मायावती जी को है तो इसमे विवाद का कोई कारण नही होना चाहिए| अगर कोई इस बात से सहमत नही है तो वो सिर्फ इसलिये कि वो बहनजी का राजनीति मे कद छोटा करके देखना चाहता होगा या फिर उसके किसी अम्बेड़करवाद से कभी कोई मतलब ही नही रहा होगा| वैसे भी अपने देश मे किसी को मरने के बाद महान या अच्छा बताना रिवाज बनी हुई है लेकिन हम सिर्फ तथ्यो पर ही रहे तो अच्छा है| 
 
मान्यवर काशीराम ने तो अम्बेड़कर विचारधारा को पूरे देश मे फैलाने का काम करना चाहा था लेकिन किसी भी राज्य मे उनको मायावती जैसा मजबुत सेनापति नही मिला जो किसी मंत्रीपद या सांसद बनने के लालच मे कांग्रेस भाजपा से अंदर खाते हाथ ना मिलाने वाला हो | अगर मान्यवर को मायावती जैसे मजबुत सेनापति अम्बेड़कर की कर्मस्थली महाराष्ट्र या सबसे ज्यादा दलित आबादी वाला मान्यवर के गृह प्रदेश पंजाब मे मिल जाते तो कम से कम इन दो राज्यो मे तो जरूर उतरप्रदेश की तरह दलित राजनैतिक चेतना उफान पर आती| 

राजनीति मे बड़ी बड़ी बाते करने वाले युवाओ की पार्टी का रूतबा भी हाल ही मे हुए बिहार विधानसभा चुनावो मे देखा, गठबंधन के बावजूद भी किसी सीट पर भी जमानत तक नही बचा पाये थे| खुद को अम्बेड़करवादी कहने वाले फुलसिंह बरैया, उदितराज, प्रीता हरित या देवाशीष जरारिया जैसे अनेको लोग टिकट मिलते ही कांग्रेस को अम्बेड़करवाद की रक्षक बताने के प्रयास मे लगे है, जो ऐतिहासिक चुटकला है और सुनने मे बड़ा मजेदार लगता है| मीडिया द्वारा बहनजी का विकल्प बताए गए युवा नेता की नजदीकियाँ भी कांग्रेस से साफ साफ नजर आ रही है| 

100-100 वोट ना जोड़ने वाले लोग भी खुद को बहनजी का उतराधिकारी बनने की लाईन मे तो खड़े है लेकिन पार्टी के लिए कार्यकर्ता बनने को तैयार नही है| बसपा के उदय होने के बाद दलितो आदिवासियों मे सामाजिक चेतना भले ही बढ़ी है, इसमे कोई शक नही है| पिछले 25 साल से हर चुनाव से पहले ही बसपा के खत्म होने की घोषणा करने वाला अपना भोंपु मीडिया 2022 के लिए पुरानी धुन बजाने की तैयारियो मे है जबकि आज भी बसपा देश मे वोटो के मामले मे भाजपा व कांग्रेस को छोड़कर सभी दलो से आगे खड़ी है| 

इसमे कोई शक नही है कि बहनजी मान्यवर काशीराम की सबसे विश्वास पात्र शिष्या रही है जो मान्यवर की तरह ही आज अपनी पार्टी मे कड़क फैसले लेने के कारण प्रसिद्ध भी है और बदनाम भी| उनकी 40 साल से ज्यादा की खरी राजनीति अपने आप मे एक ब्रांड बन चुकी है| मुझे लगता है पार्टी 2014 के बाद का सबसे बुरा दौर झेल चुकी है और अब 2022 के युपी विधानसभा मुकाबले मे अंतिम परिणाम देखकर मनुवादी मीडिया को दहाड़े मार कर रोना पड़ेगा क्योंकि अबकी बार बसपा के सपोर्टर भी राजनीति का नैरेटिव समझ पा रहे है, वो मीडिया की बातो पर पहले जितना यकीन नही करता है और खुलकर धरातल पर भी और सोशल मीडिया पर भी आमने सामने की राजनीति करना सीख रहे है|

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