BSP के वोट को प्रभाव हीन करने की कोशिश

#जिस_वोट_को_आप_किसी_भी_कीमत_पर_नही_पा_सकते_उसके_प्रभाव_को_शून्य_करने_का_प्रयास_राजनीति_में_किया_जाता_है_और_उसके_लिए_उस_वोट_बैंक_में_बिखराव_लाने_की_कोशिश_की_जाती है :-

1984 में बहुजन समाज पार्टी के उदय के बाद गांधी और गोलवलकर तक सीमित इस देश की पार्टियों के लिए अंबेडकर भी महत्वपूर्ण हो गए। जैसे जैसे बसपा बढ़ती गई, तब तक काँग्रेस ने मारा तो भाजपा की ओर और भाजपा ने मारा तो काँग्रेस की ओर भागनेवाला दलित वोटर अब बसपा की ओर झुकने लगा। इस कड़ी में तीसरा एक और पक्ष भी था जिसे पहले जनता दल के नाम से जाना गया लेकिन यह कोई विचारधारावाला संगठन नही था। यह तो केवल काँग्रेस विरोध के मुद्दे पर खड़ा किया गया अपने अपने स्वार्थपूर्ति के लिए प्रयासरत प्रादेशिक नेताओ का दल था। इसलिए, सामाजिक परिवर्तन से इसे कुछ लेना देना नही था। उत्तर प्रदेश में बसपा को लगातार मिलती सफलता से चिंतित काँग्रेस ने राम मंदिर आंदोलन और रथयात्रा के बाद नियोजनबद्ध तरीके से भाजपा को आगे बढ़ाने का काम किया ताकि देश मे दो पार्टीयो वाली ब्रिटिश तथा अमरीकन परम्परा स्थापित हो सके। 

मान्यवर कांशीराम के जीते जी बसपा को नुकसान पहुंचाना इन्हें ज्यादा संभव नही हो पाया। यह दोनों दल कांशीराम जी के गुजरनेका इंतजार करते रहे। भाजपा की जननी आरएसएस 1925 से अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए काम कर रही थी, इसलिये उसे अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए दीर्घकाल तक इंतजार करने से उसे परहेज नही है। काँग्रेस तो जैसे जाहिर है, आरएसएस की अम्मा है,क्योंकि कांग्रेसी नेताओं ने ही आरएसएस को जन्म दिया है। बसपा के प्रभाव के चलते कांग्रेस उत्तर प्रदेश से सिमटती गई और फिर कभी केंद्र की सत्ता में बहुमत नही पा सकी। उसका गुलाम चमार वोटर बसपा की वजह से अपने आप को राजा होने का एहसास कराने लगा तो बसपा और सपा के मजबूती से दूसरा बड़ा समुदाय, मुस्लिम, इन दो दलो में अपनी जगह तलाशने लगा। समाजवादी पार्टी ने जहां लाठी-डंडोवाली राजनीति से कमजोर तबकों को अपनी ओर आकर्षित किया, वही बसपा ने महापुरुषों के वैचारिक आंदोलनों के सबूत पेश कर अनेको छोटी छोटी जातियों को सत्ता तक पहुंचाया। बसपा से सैंकड़ो छोटी छोटी जातियां जुड़ी। 

किसी भी संगठन के बढ़ने का एक क्रम होता है। सबसे पहले उसे एक समुदाय में सर्वोच्च स्थान हासिल करना होता है। फिर धीरे धीरे और समुदायों को जोड़ने के लिए रणनीति और नारो में बदलाव करते रहने पड़ते है। भले ही हर संगठन सभी समाज के लिए काम करने का दावा करे, लेकिन उसमें भी प्राथमिकता का क्रम होता है। काँग्रेस-भाजपा तथा बाकी दल भी सभी के साथ होने का दावा करते है, लेकिन उनकी प्राथमिकता ऊंचे वर्गों का वर्चस्व कायम रखना होता है, दलित-मुस्लिम-पिछडो को वह सीधे तौर पर तुच्छ समझते है। इसके उलट, बहुजन समाज पार्टी भी सर्वजन सुखाय सर्वजन हिताय का दावा करती है, लेकिन उसकी प्राथमिकता दलित-आदिवासी-पिछड़े-मुस्लिम वर्गों के हितों की है और वह ऊंची जातियों के आर्थिक तौर पर पिछड़े तथा अमनपसंद वर्गों की भी इज्जत अफजाई करने से गुरेज नही करती। हजारो साल तक मांगनेवाले वर्गों को बसपा ने देनेवाला वर्ग बना दिया है और यही पर काँग्रेस-भाजपा में काम करनेवाले ऊंची जातियों के लोगो का अहंकार उफान मारता है। 

बसपा के उत्थान से चिंतित काँग्रेस ने कई चुनावो में बसपा को कम करने के लिए भाजपा की मदद की तो कभी भाजपा ने काँग्रेस की। 2014 में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पूंजीपतियोके सहारेवाले चुनाव प्रचार और पैसों के बेतहाशा मार से बसपा को शून्य तक पहुंचाने में सफलता मिली। इससे भाजपा से ज्यादा खुशी काँग्रेस को हुई। और फिर महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान के दलितों के साथ काँग्रेस-भाजपा पिछले 60 साल से जो राजनीति कर रही थी, वह दांव उसने उत्तर प्रदेश में भी चलने का प्रयास किया। 

दलित-ठाकुरो का संघर्ष हुआ शब्बीरपूर में, भाजपा की मीडिया ने हाईलाईट किया सहारनपुर को। इससे शब्बीरपूर के दंगे को भाजपा निगल गई और सहारनपुर में उसे इस्तेमाल करने के लिए एक चमार चमचा मिल गया। इसके पहले हवा के बदलते रुख को भांपकर कभी स्वामी मौर्य तो कभी नसीमुद्दीन भागे, लेकिन बसपा से कभी कोई चमार नही भागा। अगर बसपा से कोई चमार नही मिलता तो बसपा छोड़कर कोई चमार ढूंढना जरूरी था।

 वह भी पूरे यूपी में बसपा जहां सबसे ज्यादा मजबूत है, इस पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिलना ज्यादा अच्छा होता। इसलिए जिन्होंने असली संघर्ष किया, उन्हें छुपाकर भाजपा की मीडिया ने चंद्रशेखर को कड़ा संघर्ष करनेवाला हीरो बताया। उसे यातनाए दिए जाने की खबरे चलवाई जिससे यह संदेश जाए कि चंद्रशेखर ही असली हीरो है और बहनजी उसे छुड़ाने के लिए कुछ नही करती। पिछले 3 दशक से ज्यादा राजनीति में गुजारनेवाली और मान्यवर कांशीरामजी की सर्वोत्तम शिष्या को यह सब पलभर में ही समझ मे आ गया। बहनजी ने यह कहकर की "जो भी आंदोलन करना हो, बसपा के बैनर तले करे, किसीकी हिम्मत नही होगी हाथ लगाने की", चंद्रशेखर को बसपा में आकर अनुशासनात्मक तरीके से आंदोलन करने का न्यौता भी दिया। लेकिन जिन्हें खड़ा और बड़ा बसपा को रोकने के लिए ही किया जा रहा हो, उन्हें उसपर गौर करने की जरूरत महसूस नही हुई। 

काँग्रेस-भाजपा को इस बात की गारंटी हो गई है कि यूपी के चमारो के, महाराष्ट्र के महारो के वोट उन्हें किसी भी कीमत पर नही मिलनेवाले, इसलिए वह इन काम मे ना आनेवाले वोटो को विजेता वोट बनने देना नही चाहते। वह नही चाहते कि इन वोटों का ध्रुवीकरण हो और इन एकजुट वोटों के प्रति आकर्षित होकर अन्य समाज के उम्मीदवार इस समाज को शासनकर्ता बनाए। हर राज्य में इसलिए उन्होंने दलितों में कमसे कम एक बिकाऊ नेतृत्व तैयार करने का और उसे मीडिया का इस्तेमाल कर दलितों पर थोंपने का काम यह दोनों पार्टियां करती है। 

महाराष्ट्र में भीमा-कोरेगांव वाले मसले को नियोजनबद्ध तरीके से उठाकर बिना प्रादेशिक दल की मान्यता या चुनाव चिन्हवाले नेताओं को मीडिया द्वारा चमकाने के काम किया गया जबकि महाराष्ट्र में भी सबसे ज्यादा दलित वोट पाने वाली तथा एकमात्र अम्बेडकरवादी राष्ट्रीय पार्टी बसपा ही है। ठीक यही काम चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश के उस इलाके में करने की कोशिश कर रहा है जो बसपा का, चमारो का गढ़ है। बसपा की शुरुवात उत्तर प्रदेश में चमारो की उपजातियों को एक करने से हुई। जैसे ही पूरा चमार समाज जुड़ा, दलित के नाम पर बाकी दलित जातियों को जोड़ा गया। जैसे दलितों की बाकी जातियां जुड़ी, उसे बहुजन में तब्दील किया गया। बहुजनो में यादव या बाकी कुछ जातियां जब पूरी तरह से बसपा में शामिल नही हुई, तो अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए बसपा ने अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से  पिछड़े लोगो पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्हें असहज महसूस न हो, इसलिए बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के नारे को बदलकर सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के नारे में बदला गया। 

इस सब उथलपुथल में चमारवाद से शूरु कर दलित-बहुजन-सर्वजनवाद तक पहुंचने मे लगभग 34 साल गुजर गए। सभी जाति/धर्म/वर्ग के लोगो को साथ लिए बिना सत्ता पाना नामुमकिन होता है, खासकर उस तबके के लिए जो हजारो वर्षो तक जातिव्यवस्था में सबसे नीचे रहा हो, अछूत रहा हो। वैसे भी किसी भी महापुरुष की सोच किसी जाति/धर्म/समुदाय के उत्थान तक सीमित नही तो सम्पूर्ण देश या दुनिया के हितो की थी। इसलिए देश, प्रदेश, भाषा, परम्परा, वर्ग, वर्ण की दीवारें लांघ कर हमारे महापुरुष और उनकी विचारधारा वैश्विक हुई। ऐसे में हमारे वैचारिक विरोधियो द्वारा रोपित एक नासमझ युवा द्वारा फिर से "द ग्रेट चमार"वाद स्थापित करना मतलब आंदोलन को फिर से शून्य पर पहुचाने की कोशिश करना है। इन बीते 36 सालों में अम्बेडकरवादी आंदोलन को, बसपा को इस मुकाम तक पहुचाने के लिए हजारों ज्ञात-अज्ञात लोगों ने अपनी जिंदगी, अपना परिवार,अपनी संपत्ति कुर्बान की है। कई पीढ़ियों ने बर्बाद होकर इस आंदोलन को आबाद किया है। क्या हम यह कुर्बानियां जाया होते हुए अपनी आंखों से देखना चाहते है?

2022 अपनी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण साल होने वाला है। अपने दुखों से मुक्ति पाने का सबसे सुनहरा अवसर इस बार हमारे सामने बाहें फैलाए खड़ा है। हमारी समस्याए राष्ट्रीय समस्याए है, किसी एक प्रदेश की नही। इसलिए मीडिया में चमकाए जानेवाले प्लांटेड नेताओ से सावधान रहकर हमे अपनी राष्ट्रीय पार्टी बसपा को ही वोट कर तथा बाकी समुदायों के हाथी के लिए वोट लाकर जिताना है।

 ना भीमा-कोरेगांव के अभियुक्तों को कोई सजा हुई है, और ना ही शब्बीरपूर, सहारनपुर के अभियुक्तों को। लेकिन इन घटनाओं के बहाने इन प्लांटेड नेताओ ने अपनी राजनीति चमकाने की भरपूर कोशिश की है। चंद्रशेखर या ऐसे प्लांटेड नेताओ के पक्ष में पोस्ट डालने वालेको मैं तुरंत अपने फ्रेंडलिस्ट से और अपने जीवन से भी हटा देता हूँ। इससे एक फायदा यह होता है की आप दिशा से भटकते नही, दूसरा विवाद और समझाने में आपका वह समय बर्बाद नही होता जिसे हमने जमीनी स्तर पर काम करने में लगाना है।

अम्बेडकरवादी आंदोलन लच्छेदार भाषण करनेवालो का नही, प्रत्यक्ष रूप से काम करनेवालो का है। इसे चमक दमक की जरूरत वाले नेता नही, अपनी जिंदगी समाज को संगठित करनेके लिए कुर्बान करने वाले और ना बिकनेवाला समाज बनानेवाले नेता चाहिए। 

आपका वोट ही आपकी ताकत है। आपके संगठित वोटबैंक में फूट डलवाकर इसे महत्वहीन, प्रभावहीन बनाने के भाजपा-काँग्रेस के प्रयासों को विफल बनाना बड़ा जरूरी है। इसे समझिए, भावनाओ में मत बहिए वरना आनेवाली पीढियां आपको मूर्ख बताकर कोसने से परहेज नही करेंगी।

अम्बेडकरवादियों की एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी बहुजन समाज पार्टी को ही वोट करे....

अब सर्वजनों ने ठाना है, बहनजी को सी एम बनाना है...🐘🚴🏻🐘

जय भीम-जय भारत जय बसपा
#vidrohi_sagar_ambedkar

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