आरक्षण के जनक शाहू जी के परिनिर्वाण पर विशेष :-

"मैंने आपको इस दबे, कुचले, पिछड़े, वंचित समाज का सबसे शिक्षित व्यक्ति दे दिया है। मुझे पूरा भरोसा है कि डॉ. अम्बेडकर आपके तमाम कष्ट और दुखों को हर लेंगे। आप इन पर भरोसा कर सकते हैं।"

ये शब्द किसी आम व्यक्ति के नही बल्कि भेदभाव, उत्पीड़न के चरमकाल में ब्राह्मणवाद का खुलकर विरोध कर रहे कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के नरेश "छत्रपति शाहू जी महाराज" के थे। उनका जन्म 26 जून 1874 को कागल (कोल्हापुर) में एक ओबीसी राज परिवार में हुआ था। शाहू महाराज "महात्मा ज्योतिबा फुले" से प्रभावित थे। वंचितों के लिए उनके किये गए प्रयासों की वजह से पूरा बहुजन समाज उन्हें आज दिल से नमन करता है।

ओबीसी समाज मे जन्मे एवं राजा होते हुए भी शाहू महाराज को अपने शूद्र होने का एहसास तब हुआ जब उनका राजतिलक करने के लिए ब्राह्मणों ने मना कर दिया। अंत मे जो ब्राह्मण तैयार हुआ उसने हाथ के अंगूठे की जगह पैर के अंगूठे से राजतिलक करने की बात कही और वैदिक मंत्रों के उच्चारण की जगह पुराण मंत्रों से उच्चारण करने की बात स्वीकारी। यही वो समय था जब शाहू महाराज इस व्यवस्था को बदलने के लिए ब्राह्मणवाद के खिलाफ खुलकर खड़े हुए।

अपने राज्य में उन्होंने बाल विवाह और देवदासी प्रथा पर पूर्णतया रोक लगा दी और महिला शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा देना शुरू किया। 1902 में आगे बढ़ते हुए उन्होंने अपने राज्य के प्रशासनिक कार्यों से ब्राह्मणों को हटाते हुए 50% शूद्रों-अतिशूद्रों को आरक्षण देना शुरू किया। डॉ. अम्बेडकर को उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने के खर्च से लेकर "मूकनायक" पत्रिका के संपादन के लिए शाहू जी महाराज ने दिल खोकर मदद की।

1920 में उन्होंने "अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद" के माध्यम से तमाम वंचितों को एक मंच प्रदान किया और इसी साल उन्होंने शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए स्कूल, हॉस्टल और प्रतिभाशाली छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करनी शुरू की। इसके अलावा लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए बुनाई और स्पिनिंग मिल व किसानों के लिए "किसान सहकारी समिति" की स्थापना की।

आजीवन पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने वाले इस महान यौद्धा 6 मई 1922 को अंतिम साँस ली लेकिन तब तक वो हर एक मजलूम के दिल मे गहरी जगह बना चुके थे। आज उनके स्मृति दिवस पर इस वीर सपूत को तमाम मानवतावादी लोगों की ओर से सादर नमन।

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